Sitemap
Write to Speaker
 
 

 

पी.ए.संगमा

वापस

49 वर्ष के भारतीय संसदीय अनुभव की सुस्थापित परंपरा से हटकर ग्यारहवीं लोक सभा ने विपक्ष के एक सदस्य श्री पूर्णो अगितोक संगमा को सर्वसम्मति से अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित किया। मेघालय के एक छोटे से आदिवासी गांव से जीवन की साधारण शुरूआत करके, वह अपनी योग्यता, दृढ़निश्चय और मेहनत के बल पर लोक सभा के अध्यक्ष के प्रतिष्ठित पद तक पहुंचे। मिलनसार, स्नेही, स्वभावतः अनौपचारिक, हाजिर जवाब और हँसमुख किंतु सभा के सुचारू कार्यसंचालन को सुनिश्चित करते समय अत्यंत दृढ़ रहने वाले, संगमा का व्यक्तित्व ऐसा आकर्षक है कि उन्हें लोक सभा में विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्यों का पूरा-पूरा सहयोग मिला। सभा की गरिमा, मर्यादा और स्वायत्तता को पूर्ण निष्पक्षता से बनाए रखने के उनके प्रयासों ने उन्हें देश भर में ख्याति दिलायी।

पूर्णो अगितोक संगमा का जन्म 1 सितम्बर, 1947 को पूर्वोत्तर भारत में मेघालय राज्य के रमणीक पश्चिमी गारो हिल जिले के चपाहटी गांव में हुआ था। छोटे से आदिवासी गांव में पले बालक संगमा ने अपने जीवन के आरंभिक वर्षों में ही यह महसूस कर लिया था कि उन्हें जीवन में आगे बढ़ने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ेगा। उन्होंने अपनी मां, जिन्होंने उनके अंदर कर्मठता, विनम्रता, ईमानदारी के चारित्रिक गुणों का संचार किया था, से प्रेरणा प्राप्त कर यह समझ लिया कि शिक्षा ही जीवन में आगे बढ़ने का एक मात्र रास्ता है। सेंट एन्थोनी कालेज से स्नातक डिग्री लेने के पश्चात् वह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त करने के लिए असम में डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय गए। बाद में उन्होंने विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

संगमा बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। राजनीति में आने से पहले उन्होंने प्राध्यापक, अधिवक्ता और पत्रकार के रूप में भी कार्य किया। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का आरंभ कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में किया और वह पार्टी के पदों पर तेजी से आगे बढ़ते गए। 1974 में वह मेघालय प्रदेश युवा कांग्रेस के महासचिव बने। वह कुछ समय के लिए इसके उपाध्यक्ष भी रहे। पार्टी की विचारधारा के प्रति उनकी वचनबद्धता को समझते हुए और उनके संगठनात्मक कौशल को ध्यान में रखते हुए, उन्हें 1975 में मेघालय प्रदेश कांग्रेस कमेटी का महासचिव बनाया गया और वह 1980 तक इस पद पर रहे।

जिस समय 1977 में संगमा राष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्य पर उभरे, उस समय देश में छठे आम चुनाव की तैयारी चल रही थी। वह अपने गृह राज्य में तुरा संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर निर्वाचित हुए। 30 वर्षीय संगंमा ने संसद में ऐसे समय प्रवेश किया जब देश में एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हो रहा था और कांग्रेस पार्टी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहली बार केंद्र में चुनावों में हार के बाद सत्ता से हट रही थी। उभरते हुए सांसद के लिए अपनी छवि बनाने का यह एक सुअवसर था और प्रखर वक्ता संगमा ने एक ईमानदार तथा अध्यवसायी सदस्य के रूप में स्वयं को प्रतिष्ठित करने के लिए इस अवसर का पूरा लाभ उठाया।

दो वर्षों से भी कम समय में राष्ट्रीय राजनीति में स्थितियां बिल्कुल बदल गयीं और जनता पार्टी अपदस्थ हो गयी। चरण सिंह की सरकार, जिसने बाद में सत्ता संभाली, केवल कुछ ही महीनों तक टिक सकी। 1980 के मध्यावधि चुनावों में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी केंद्र में सत्ता में लौट आयी। संगमा उसी निर्वाचन क्षेत्र से लोक सभा के लिए फिर से निर्वाचित हुए।  

पार्टी संगठन में संगमा द्रुतगति से आगे बढ़े और 1980 में केद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने से पूर्व वह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के संयुक्त सचिव बने तथा नवम्बर 1980 में उद्योग मंत्रालय में उपमंत्री बनाए गए। दो वर्षों के बाद वह वाणिज्य मंत्रालय में उपमंत्री बने और दिसम्बर 1984 तक उस पद का कार्यभार संभाला।

1984 के आम चुनावों में संगमा आठवीं लोक सभा के लिए पुनः निर्वाचित हुए। उनकी क्षमताओं और कांग्रेस की विचारधारा के प्रति उनकी निष्ठा को पहचानते हुए श्री राजीव गांधी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया और इस बार उन्हें वाणिज्य तथा आपूर्ति का प्रभार देते हुए राज्य मंत्री बनया। कुछ समय के लिए उन्होंने गृह मंत्रालय के राज्य मंत्री का कार्यभार भी संभाला। अक्तूबर, 1986 में, संगमा ने श्रम मत्रालय के राज्य मंत्री का स्वतंत्र प्रभार संभाला।

सदैव तर्क को समझने वाले और मेल-मिलाप में विश्वास रखने वाले संगमा ने राष्ट्रीय हितों के बुनियादी तत्वों के संबंध में कभी समझौता नहीं किया। अतः यह आश्चर्य की बात नहीं है कि श्रम मंत्री के उनके कार्यकाल के दौरान उद्योगों में हड़तालों और तालाबंदी में काफी कमी आयी।  

अपने कार्य की सावधानीपूर्वक तैयारी करने, अपने विषय पर पूर्ण नियंत्रण रखने तथा तथ्यों और आंकड़ों को काफी लंबे समय तक याद रखने के लिए ज्ञात संगमा एक ऐसे मंत्री थे जिन्हें संसद में उत्तेजनापूर्ण वाद विवाद के दौरान उत्तर देने के लिए अधिकारी-दीर्घा से आने वाली अधिकारियों की पर्चियों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था। अपनी स्नेहशीलता, अपने मंत्रालय के कार्यकरण की संपूर्ण जानकारी और अद्वितीय विनोदी स्वभाव के कारण वह संसद की सभी चुनौतियों का सामना करते थे। विशेष तौर पर प्रश्न काल के दौरान उनकी प्रतिभा सबसे ज्यादा उभरती थी और वह जटिल मामलों को काफी आसानी से निपटाते थे। मंत्री के रूप में अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ प्रशासक की छवि बनाए रखी और वह विवादों से बचे रहे।

संगमा को पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र, विशेषकर अपने गृह राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों की संपूर्ण जानकारी थी। यद्यपि 1977 से वह दिल्ली में रहते आ रहे थे और राष्ट्रीय राजनीति में व्यस्त थे, फिर भी उन्होंने स्वयं को अपनी जड़ों से कभी अलग नहीं किया और अपने राज्य की राजनीतिक गतिविधियों की सर्वदा जानकारी रखी। राज्य की राजनीति की इसी संपूर्ण जानकारी के कारण कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने 1988 में मेघालय में उनकी सेवाएं लीं। उस वर्ष वह मेघालय की राजनीति में वापस आए और वहां के मुख्यमंत्री बने। अपने राज्य के राजनैतिक इतिहास के उथल-पुथल के दौर में उन्होंने 48 सदस्यों वाली साझा सरकार का नेतृत्व किया। वर्ष 1990 में उनकी सरकार द्वारा त्याग पत्र दिए जाने के बाद संगमा राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता बने।

राष्ट्र की पुकार पर संगमा शीघ्र ही राष्ट्रीय राजनीति में लौट आए। 1991 के आम चुनावों में वह लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए और इस बार तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी. वी. नरसिंह राव ने उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया। संगमा को कोयला मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया। फरवरी, 1992 में श्रम मंत्रालय में प्रधानमंत्री की सहायता हेतु उन्हें अतरिक्त जिम्मेदारी सौंपी गयी। केंद्र सरकार द्वारा घोषित आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की नीति के संदर्भ में उनके सामने मुख्य चुनौती बेचैन और सशंकित श्रमिकों को आर्थिक सुधारों की विचारधारा को स्वीकार करने के लिए तैयार करना था। त्रिपक्षीय औद्योगिक समिति की बैठकों की लगातार अध्यक्षता करते हुए उन्होंने एक ऐसे नए प्रबंधन और नयी कार्य शैली की आवश्यकता पर बल दिया जिसका मुख्य उद्देश्य कार्यकुशलता, उत्पादकता और आधुनिकीकरण के माध्यम से धन की वृद्धि करना तथा उसका सम्यक वितरण करना था।

जनवरी, 1993 में उन्होंने श्रम मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार संभाला। फरवरी, 1995 में संगमा को कैबिनेट स्तर का मंत्री बनाया गया। इस स्तर पर पहुंचनेवाले वह पहले आदिवासी व्यक्ति थे। केंद्रीय श्रम मंत्री के रूप में उन्होंने जिनेवा में अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में त्रिपक्षीय भारतीय शिष्टमंडल का छह बार नेतृत्व किया औरहर बार अपनी क्षमताओं को प्रमाणित किया। उन्हें 1994-95 के अंतर्राष्ट्रीय श्रम मंत्रियों के सम्मेलन के एशिया-प्रशांत क्षेत्र का अध्यक्ष भी चुना गया। जब विदेशी निवेशकों ने भारत में पूंजी निवेश करना आरंभ किया तो कुछ लोगों ने तथाकथित "सामाजिक खंड" के मुद्दे पर आपत्ति की। तब संगमा ने श्रम मंत्री के रूप में, वर्ष 1994-95 में गुट निरपेक्ष देशों तथा अन्य विकासशील देशों के श्रम मंत्रियों का एक सम्मेलन आयोजित किया और उनमें इस बात के लिए सर्वसम्मति पैदा की कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को, श्रम मानकों इत्यादि जैसे सामाजिक मुद्दों की प्राप्ति का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए क्योंकि ऐसा करना जोर जबरदस्ती से मनाया गया तरीका माना जाएगा।

सितम्बर, 1995 में संगमा ने सूचना और प्रसारण मंत्री का पदभार संभाला तथा ग्यारहवीं लोक सभा के लिए आम चुनाव होने तक वह उस पद पर बने रहे।

एक सांसद के रूप में अपनी रूचियों तथा विभिन्न पदों पर आसीन होने के कारण, संगमा विभिन्न समितियों में सक्रिय रहे। वह अधीनस्थ विधान संबंधी समिति, संचार संबंधी समिति तथा सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति के सदस्य रहे। वह श्रम, कोयला तथा संचार संबंधी संसदीय परामर्शदात्री समितियों के सभापति भी रहे।

संगमा 1986 के आम चुनावों में तुरा संसदीय क्षेत्र से पांचवी बार लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए। 23 मई, 1996 को सभी पार्टियों ने दलगत भावना से ऊपर उठते हुए उन्हें सर्वसम्मति से 11वीं लोक सभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया। भारत के 50 वर्षों के संसदीय इतिहास में वह ऐसे पहले सदस्य थे जिन्होंने विपक्ष में रहते हुए अध्यक्ष का पद संभाला।

नःसंदेह संगमा के पास कानूनी प्रशिक्षण, सांसद तथा मंत्री के रूप में लंबा अनुभव, निष्पक्षता के लिए नेकनामी, पारदर्शिता, शालीनता, बुद्धिमता तथा हाजिरजवाबी जैसे वे सभी गुण मौजूद थे जो इस महिमामय पद के लिए आवश्यक होते हैं। अध्यक्ष पद संभालते ही उन्होंने जिस सूझबूझ और विश्वास से अपनी जिम्मेदारी निभायी उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह इस कार्य में स्वभावतः निपुण थे। संसदीय सुधारों के लिए उनकी कार्यशैली अनूठी थी। अध्यक्ष के रूप में उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि वाद-विवाद के उत्तेजनापूर्ण क्षणों के दौरान भी सदस्य नियमों का पालन करते रहें। उनकी लिए संसदीय लोकतंत्र का अर्थ है स्वतंत्र वाद-विवाद, निष्पक्ष विचार-विमर्श तथा स्वस्थ आलोचना और अध्यक्ष के रूप में उन्हें यह सुनिश्चित करना था कि ये उद्देश्य पूरे हों।

अध्यक्ष संगमा ने न केवल सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच दलीय स्तर पर संतुलन बनाए रखा बल्कि उससे भी आगे उन्होंने सदस्यों के बीच भी संतुलन बनाए रखा जिसके कारण वह सत्तारूढ़ साझा सरकार तथा विपक्ष, दोनों के बीच, कम समय में ही, प्रशंसा के पात्र बन गए। उन्होंने राजनीति में महिलाओं तथा पुरूषों के बीच सहभागिता को बढ़ावा देने में पहल करने तथा सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और ईमानदारी को महत्व देने जैसे प्रशंसनीय कदम उठाकर समय की मांग और इतिहास की अच्छी जानकारी का परिचय दिया। इस बात को ध्यान में रखते हुए अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल के दौरान उन्होंने महिलाओं को शक्तियां प्रदान करने संबंधी स्थायी संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया ताकि वह लोक सभा और राज्य विधान सभाओं में महिलाओं को 33 1/3 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध कराने हेतु संविधान (81वां संशोधन) विधेयक, 1996 पर विचार कर सके।

संगमा का मानना था कि संसदीय जीवन में उच्च परंपराओं को बनाए रखने के लिए संसद सदस्यों से सदन के भीतर ही नहीं वरन् बाहर भी आदर्श आचरण की अपेक्षा की जाती है। उनका यह सुविचारित मत था कि संवैधानिक प्रणाली के विधायी, कार्यकारी तथा न्यायिक अंगों में नैतिक मूल्यों की उपस्थिति से उनके आचरण, संचालन, विश्वसनीयता तथा लोकतांत्रिक शासन के भविष्य पर गहरा तथा चिरस्थायी प्रभाव पड़ता है। अध्यक्ष के रूप में संगमा के कार्यकाल के दौरान सार्वजनिक जीवन में नैतिकता तथा आदर्शों के बारे में प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए विशेषाधिकार समिति के एक आठ सदस्यीय अध्ययन दल का गठन किया गया था। उनके इस कदम को सभी ने अत्यधिक सराहा। इस अध्ययन दल के प्रतिवेदन को बाद में बारहवीं लोक सभा में प्रस्तुत किया गया।

अध्यक्ष संगमा द्वारा भारत की स्वतंत्रता के स्वर्ण जयंती समारोहों के उपलक्ष्य में 26 अगस्त से 1 सितम्बर, 1997 तक संसद के दोनों सदनों का विशेष अधिवेशन आयोजित करना उनके द्वारा उठाया गया एक और बड़ा कदम था। इस अधिवेशन में उपलब्धियों पर चर्चा की गयी तथा भविष्य के लिए राष्ट्रीय एजेंडा भी निर्धारित किया गया। विशेष सत्र का शुभारंभ करते हुए भारतीय संसदीय इतिहास में पहली बार अध्यक्ष ने सभा को संबोधित किया और एक दूसरे स्वतंत्रता आंदोलन की आवश्यकता पर बल दिया जिसका उद्देश्य "हमारी समृद्धि तथा निर्धनता के बीच, हमारे संसाधनों की बहुलता तथा उनके बुद्धिमत्तापूर्ण प्रबंधन के अभाव के बीच, शांति और सहिष्णुता तथा हिंसा तथा असहिष्णुता के बीच एवं भेदभाव की ओर उन्मुख होते आज के हमारे आचरण के बीच व्याप्त अंतर्विरोधों से मुक्ति दिलाना हो। "

संगमा ने अध्यक्ष के रूप में भारतीय संसदीय शिष्टमंडल का कुआलालम्पुर में अगस्त 1996 में तथा पोर्ट लुई में सितम्बर, 1997 में हुए राष्ट्रमंडल संसदीय संघ के क्रमशः 42वें तथा 43वें सम्मेलनों में नेतृत्व किया। उन्होंने भारतीय संसदीय शिष्टमंडल का बीजिंग में सितम्बर, 1996 में अंतर-संसदीय संघ के 96वें सम्मेलन में तथा काहिरा में सितंबर, 1997 में हुए 98वें सम्मेलन में भी नेतृत्व किया। संगमा ने इस्लामाबाद में अक्तूबर, 1997 में हुए "सार्क " अध्यक्षों तथा सांसदों के संघ के सम्मेलन में भी भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। उन्होंने भारतीय संसद द्वारा फरवरी, 1997 में नई दिल्ली में आयोजित "राजनीति में महिलाओं तथा पुरूषों के बीच सहभागिता की ओर " विषय पर अंतर-संसदीय संघ के विशेषीकृत सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। उनके घटनापूर्ण कार्यकाल के दौरान " सार्क " संसदों की लोक लेखा समितियों के सभापतियों तथा सदस्यों का सबसे पहला सम्मेलन भी अगस्त, 1997 में नई दिल्ली में हुआ था।

संगमा एक अत्यंत लोकप्रिय पीठासीन अधिकारी रहे और नियमों के ज्ञान तथा इससे भी अधिक, संसदी परंपराओं की स्वाभाविक समझ के लिए उनका आदर किया जाता है। वह सदन से बाहर भी बहुत ही उत्कृष्ट इंसान थे। उन्होंने सक्रियतावादी समूहों द्वारा आयोजित अनेक सामाजिक समारोहों और बौद्धिक परिचर्चाओं में बड़े उत्साह, सुस्पष्ट उद्देश्य तथा राष्ट्रीय मुद्दों पर गैर-दलीय दृष्टिकोण के साथ भाग लिया और अध्यक्ष पद को एक नया सामाजिक और सार्वजनिक आयाम प्रदान किया।

संगमा विभिन्न सामाजिक और शैक्षिक संस्थाओं से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध रहे। वह मेघालय के दैनिक समाचार पत्र " चनदमबेनी कलरंग" के संपादक रहे। उन्होंने "इंडिया इन आई. एल. ओ." नामक पुस्तक के दो खंडों का संपादन भी किया।

संगमा को मार्च, 1997 में टाटा वर्कर्स यूनियन की ओर से श्रमिकों के हित तथा संसदीय प्रणाली में विशिष्ट योगदान के लिए "माइकल जॉन रोल ऑफ ऑनर" प्रदान किया गया। भारत के राष्ट्रपति द्वारा श्रमिक वर्ग के हितों के लिए उनके उत्कृष्ट योगदान हेतु उन्हें मई, 1997 में भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) का स्वर्ण जयंती पुरस्कार भी प्रदान किया गया।

संगमा एक बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति हैं। सदन में शिष्टाचार, निष्पक्षता और गरिमा बनाए रखने के लिए उनके प्रयासों ने उन्हें उत्कृष्ट सांसद की प्रतिष्ठा दिलायी। तथापि संगमा जिस योग्यता के कारण विभिन्न विचारधाराओं वाले सभी राजनीतिक दलों के लिए स्वीकार्य बने, वह है उनका सदन में दोनों पक्षों के सदस्यों का विश्वास हासिल करने का गुण। सुविधाविहीन लोगों के प्रति उनकी गंभीर चिंता तथा गरीबी और सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को दूर करने के उनके अथक प्रयासों ने उन्हें अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया। नःसंदेह वह अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के जननायक हैं। संगमा के व्यक्तित्व के मानवीय पक्ष के कारण ही उनके मित्रों की संख्या काफी अधिक है।

यद्यपि संगमा दो वर्ष से भी कम अवधि के लिए लोक सभा के अध्यक्ष रहे, फिर भी उन्होंने इस पद पर अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ी है। उनका भोला-भाला चेहरा, उन्मुक्त हंसी, हाज़िरजवाबी, असीम उत्साह, त्रुटिहीन आचरण तथा सहज विवेक जैसी विशिष्टताओं ने उनका नाम घर-घर में लोकप्रिय बना दिया और जिस असाधारण कुशलता से उन्होंने सभा की कार्यवाही संचालित की उसके लिए देशभर में लोगों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। प्रचार माध्यमों ने भी उनके अध्यक्ष पद के कार्यकाल के दौरान किए गए कार्यों को खूब सराहा।

वर्ष 1998 के आम चुनाव में संगमा लोक सभा के लिए एक बार फिर चुनकर आए हैं और इस समय वह विपक्ष के सबसे कुशल तथा गरिमापूर्ण वक्ताओं में से एक हैं जिन्हें सभी सदस्य आदर से तथा ध्यानपूर्वक सुनते हैं।

[ ऊपर]

 

  मुख्य पृष्ठ | जीवन-वृत्त | अध्यक्ष का कार्यालय| अध्यक्ष की भूमिका | सामयिक अध्यक्ष | भूतपूर्व अध्यक्ष | संबंधित लिंक
Sitemap