संसद एक ऐसा स्थान है जहाँ राष्ट्र के समग्र क्रियाकलापों पर चर्चा होती है और उसकी भवितव्यता को रूपाकार प्रदान किया जाता है। इस सम्माननीय निकाय के पर्यालोचन प्रकृतिश: सत्य एवं साधुत्व की उच्च परंपराओं द्वारा प्रेरित हैं।
संसद भवन में अनेक सूक्तियां अंकित हैं जो दोनों सभाओं के कार्य में पथ प्रदर्शन करती हैं और किसी भी आगन्तुक का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता।
भवन के मुख्य द्वार पर एक संस्कृत उद्धरण अंकित है जो हमें राष्ट्र की प्रभुता का स्मरण कराता है जिसका मूर्त प्रतीक संसद है। द्वार संख्या 1 पर निम्न शब्द अंकित हैं:
लो ३ कद्धारमपावा ३ र्ण ३३
पश्येम त्वां वयं वेरा ३३३३३
(हुं ३ आ) ३३ ज्या ३ यो ३
आ ३२१११ इति।
(छन्दो. 2/24/8)
इसका हिन्दी अनुवाद यह है:-
"द्वार खोल दो, लोगों के हित,
और दिखा दो झांकी।
जिससे अहो प्राप्ति हो जाए,
सार्वभौम प्रभुता की।"
(छन्दो. 2/24/8)
भवन में प्रवेश करने के बाद दाहिनी ओर लिफ्ट संख्या 1 के पास आपको लोक सभा की धनुषाकार बाह्य लॉबी दिखाई देगी। इस लॉबी के ठीक मध्य से एक द्वार आंतरिक लॉबी को जाता है और इसके सामने एक द्वार केन्द्रीय कक्ष को जाता है जहां दर्शक को दो भित्ति लेख दिखाई देंगे।
आंतरिक लॉबी के द्वार पर द्वार संख्या 1 वाला भित्ति लेख ही दोहराया गया है। मुड़ते ही सेन्ट्रल हॉल के मार्ग के गुम्बद पर अरबी का यह अद्धरण दिखाई देता है जिसका अर्थ यह है कि लोग स्वयं ही अपने भाग्य के निर्माता हैं। वह उद्धरण इस प्रकार है:-
इन्नलाहो ला युगय्यरो मा बिकौमिन्।
हत्ता युगय्यरो वा बिन नफसे हुम।।
एक उर्दू कवि ने इस विचार को इस प्रकार व्यक्त किया है:-
"खुदा ने आज तक उस कौम की हालत नहीं बदली,
न हो जिसको ख्याल खुद अपनी हालत बदलने का। "
लोक सभा चैम्बर के भीतर अध्यक्ष के आसन के ऊपर यह शब्द अंकित है:-
धर्मचक्र-प्रवर्तनाय
"धर्म परायणता के चक्रावर्तन के लिए"
अतीत काल से ही भारत के शासक धर्म के मार्ग को ही आदर्श मानकर उस पर चलते रहे हैं और उसी मार्ग का प्रतीक धर्मचक्र भारत के राष्ट्र ध्वज तथा राज चिह्न पर सुशोभित है।
जब हम संसद भवन के द्वार संख्या 1 से केन्द्रीय कक्ष की ओर बढ़ते हैं तो उस कक्ष के द्वार के ऊपर अंकित पंचतंत्र के निम्नलिखित संस्कृत श्लोक की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है:-
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
(पंचतंत्र 5/38)
हिन्दी में इस श्लोक का अर्थ है:-
"यह निज, यह पर, सोचना,
संकुचित विचार है।
उदाराशयों के लिए
अखिल विश्व परिवार है।"
(पंचतंत्र 5/38)
अन्य सूक्तियां जिनमें से कुछ स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं, लिफ्टों के निकट गुम्बदों पर अंकित हैं। भवन की पहली मंजिल से ये लेख स्पष्टतया दिखायी देते हैं।
लिफ्ट संख्या 1 के निकटवर्ती गुम्बद पर महाभारत का यह श्लोक अंकित है:-
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा,
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्म स नो यत्र न सत्यमस्ति,
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति।।
(महाभारत 5/35/58)
इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
"वह सभा नहीं है जिसमें वृद्ध न हों,
वे वृद्ध नहीं है जो धर्मानुसार न बोलें,
जहां सत्य न हो वह धर्म नहीं है,
जिसमें छल हो वह सत्य नहीं है।"
(महाभारत 5/35/58)
यह सूक्ति तथा लिफ्ट संख्या 2 के निकटवर्ती गुम्बद का भित्ति लेख दो शाश्वत गुणों - सत्य तथा धर्म पर जोर देते हैं जिनका सभा को पालन करना चाहिए।
लिफ्ट संख्या 2 के निकटवर्ती गुम्बद पर यह सूक्ति अंकित है:-
सभा वा न प्रवेष्टव्या,
वक्तव्यं वा समंञ्जसम्।
अब्रुवन् विब्रुवन वापि,
नरो भवति किल्विषी।।
(मनु 8/13)
इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
"कोई व्यक्ति या तो सभा में प्रवेश ही न करे अथवा यदि वह ऐसा करे तो उसे वहां धर्मानुसार बोलना चाहिए, क्योंकि न बोलने वाला अथवा असत्य बोलने वाला मनुष्य दोनों ही समान रूप से पाप के भागी होते हैं।"
लिफ्ट संख्या 3 के निकटवर्ती गुम्बद पर संस्कृत में यह सूक्ति अंकित है:-
न हीदृशं संवननं,
त्रिषु लोकेषु विद्यते।
दया मैत्री च भूतेषु,
दानं च मधुरा च वाक्।।
इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
"प्राणियों पर दया और उनसे मैत्री भाव, दानशीलता तथा मधु वाणी, इन सबका सामंजस्य एक व्यक्ति में तीनों लोगों में नहीं मिलता।"
लिफ्ट संख्या 4 के निकटवर्ती गुम्बद के संस्कृत के भित्ति लेख में भी अच्छे शासक के गुणों का वर्णन है। भित्ति लेख इस प्रकार है:-
सर्वदा, स्नान्नृपः प्राज्ञः,
स्वमते न कदाचन।
सभ्याधिकारिप्रकृति,
सभासत्सुमते स्थितः।।
इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
"शासक सदा बुद्धिमान होना चाहिए,
परन्तु उसे स्वेच्छाचारी कदापि नहीं होना चाहिए,
उसे सब बातों में मंत्रियों की सलाह लेनी चाहिए,
सभा में बैठना चाहिए और शुभ मंत्रणानुसार चलना चाहिए।"
अन्त में लिफ्ट संख्या 5 के निकटवर्ती गुम्बद पर फारसी का यह भित्ति लेख है:-
बरी रूवाके जेबर्जद नविश्ता अन्द बेर्ज,
जुज निकोई-ए-अहले करम नख्वाहद् मान्द।।
इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
"इस गौरवपूर्ण मरकत मणि समान भवन में यह स्वर्णाक्षर अंकित हैं। दानशीलों के शुभ कामों के अतिरिक्त और कोई वस्तु शाश्वत् नहीं रहेगी।"