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जी.एस. ढिल्‍लों

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डा0 गुरदयाल सिंह ढिल्लों बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जिन्हें कानून से लेकर पत्रकारिता तथा शिक्षा और खेलकूद से लेकर संवैधानिक अध्ययन में रुचि थी। सिद्धांतों से समझौता करना उन्हें कतई पसंद नहीं था। उनके लिए संसद लोकतंत्र का मंदिर था और इसलिए सभा और इसकी परम्पराओं तथा परिपाटियों के प्रति उनके मन में अत्यधिक सम्मान था। उनमें सभा की मनःस्थिति को पल भर में भांपने की अद्भुत क्षमता थी तथा उनका दृष्टिकोण व्यावहारिक हुआ करता था। इन्हीं गुणों के कारण वे अध्यक्ष पद के गुरुतर दायित्व का निर्वहन गौरवशाली तरीके से कर पाए। अंतर-संसदीय संघ की अंतर-संसदीय परिषद के प्रेजीडेंट के रूप में ढिल्लों का चुनाव न केवल उनके लिए बल्कि भारत की पूरी जनता तथा भारतीय संसद के लिए भी बहुत सम्मान की बात थी।

गुरदयाल सिंह ढिल्लों का जन्म पंजाब के अमृतसर जिले के पंजवार में 6 अगस्त, 1915 को हुआ था। वे एक मेधावी छात्र थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा खालसा कालेज, अमृतसर, गवर्नमेंट कालेज, लाहौर और यूनिवर्सिटी लॉ कालेज, लाहौर में हुई।

1937 से 1945 तक की अवधि के दौरान ढिल्लों ने वकालत की और एक सफल वकील के रूप में ख्याति अर्जित की। उनकी वकालत खूब चलती थी। इसके बावजूद वे अपनी देशभक्ति की भावना और अपने देशवासियों के प्रति चिंता को दबा नहीं सके। शीघ्र ही वे स्वतंत्रता संघर्ष तथा किसान आंदोलन में पूरी तरह कूद पड़े जिसके कारण उन्हें ब्रिटिश शासकों का कोपभाजन होना पड़ा। स्वतंत्रता संघर्ष से संबंधित गतिविधियों के लिए उन्हें दो बार जेल भेजा गया। लम्बे समय तक जेल में रहने के कारण उन्होंने वकालत छोड़ दी।

आजादी के बाद उन्होंने पत्रकारिता का पेशा अपनाया और स्वयं को एक निडर और प्रभावशाली लेखक के रूप में स्थापित किया। उनके लेखों में वैचारिक दृढ़ता होती थी जिसने पाठकों को प्रभावित किया। साप्रदायिक ताकतों के गंदे कारनामों के बावजूद साप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने के उनके प्रयास अनुकरणीय थे। महत्वपूर्ण मामलों पर सहमति बनाने और विघटनकारी ताकतों के नापाक इरादों के बारे में लोगों को शिक्षित करने के उद्देश्य से उन्होंने 1947 में एक पंजाबी दैनिक "वर्तमान" का प्रकाशन भी शुरू किया और उसका सम्पादन किया। बाद में वे उर्दू दैनिक "शेर-ए-भारत" के मुख्य सम्पादक और नेशनल सिख न्यूजपेपर्स लि0 के प्रबंध निदेशक भी बने। वे वर्ष 1952 तक पंजाब पत्रकार संघ की कार्यकारी समिति के सदस्य और 1953 तक राज्य प्रेस सलाहकार समितियों सदस्य भी रहे।

ढिल्लों विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल रहते थे। वे 1946 से 1954 तक शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एस.जी.पी.सी.) और अमृतसर जिला बोर्ड के सदस्य रहे और 1948-52 के दौरान तरनतारन बाजार समिति के चेयरमैन रहे। कांग्रेस पार्टी के एक समर्पित कार्यकर्त्ता होने के नाते वे 1950-51 के दौरान पंजाब कांग्रेस अनुशासन समिति के चेयरमैन और 1953 तक अमृतसर जिला कांग्रेस समिति के अध्यक्ष रहे। कुछ वर्षों के लिए वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य भी रहे।

ढिल्लों का 1952 से 1967 तक पंजाब विधान सभा के सदस्य के रूप में एक सुदीर्घ और शानदार कार्यकाल रहा। इस अवधि के दौरान उन्होंने अनेक विधायी उत्तरदायित्वों को विशिष्टता के साथ निभाया। इस दौरान वे पंजाब विधान सभा की लोक लेखा समिति और विशेषाधिकार समिति के सभापति रहे। वे राज्य में गैर कृषक भूमि कराधान समिति के सभापति भी रहे। ढिल्लों 1952 में पंजाब विधान सभा उपाध्यक्ष चुने गए और इस पद पर वे 1954 तक रहे। इसके पश्चात् वे 1954 से 1962 तक विधान सभा के अध्यक्ष के पद पर लम्बे समय तक रहे। अध्यक्ष के रूप में उन्होंने सभा की कार्यवाही इस तरीके से चलाई कि उन्हें सभा के सभी वर्गों का सम्मान प्राप्त हुआ।

ढिल्लों वर्ष 1964 से 1966 तक पंजाब कांग्रेस विधान मंडल पार्टी के महासचिव और मुख्य सचेतक रहे। वर्ष 1965-66 के दौरान उन्होंने परिवहन, ग्रामीण विद्युतीकरण, संसदीय कार्य और निर्वाचन मंत्री के रूप में और पंजाब में 1965 के युद्ध से प्रभावित क्षेत्रों के लोगों के पुनर्वास मंत्री के रूप में भी कार्य किया। पूर्णतः राष्ट्रवादी ढिल्लों ने 1965 के युद्ध के दौरान सीमा क्षेत्रों का निडर होकर दौरा किया और लोगों को सीमापार के खतरों से एकजुट होकर सामना करने को प्रेरित किया। उनके साहस और संगठन क्षमता की सभी ने प्रशंसा की।

ढिल्लों 1967 में चौथी लोक सभा के लिए पंजाब के तरनतारन संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुने गए। उसके बाद वे बैंककारी विधि (संशोधन) विधेयक, 1967 संबंधी प्रवर समिति के सभापति नियुक्त किए गए। बाद में वे दो अवधियों -- 1968-69 और 1969-70 के लिए सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति के सभापति नियुक्त किए गए। वे सभापतियों की सूची के सदस्य भी रहे।

तत्कालीन अध्यक्ष नीलम संजीवा रेड्डी द्वारा राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए लोक सभा के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिए जाने पर ढिल्लों को 8 अगस्त, 1969 को सर्वसम्मति से लोक सभा का अध्यक्ष चुना गया। जब ढिल्लों इस पद के लिए निर्वाचित हुए तो वे उस समय तक ल्को सभा के जितने अध्यक्ष हुए थे उनमें से सबसे कम उम्र के अध्यक्ष थे। जिस ढंग से उन्होंने कार्यवाही का संचालन किया उससे सभा में सभी राजनीतिक दलों के सदस्य प्रभावित हुए।

1971 में ढिल्लों लोक सभा के लिए तरनतारन से पुनः चुने गए। इस बार भी ढिल्लों को 22 मार्च, 1971 को लोक सभा का अध्यक्ष चुना गया। उनका पुनः चुना जाना उनकी प्रसिद्धि तथा योग्यता का प्रमाण था।

लोकतांत्रिक मूल्यों से ओत-प्रोत ढिल्लों का मानना था कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र का अंतिम प्रयोजन सामान्य आदमी की आकांक्षाओं को पूरा करना तथा उसके जीवन को बेहतर बनाना है ताकि स्थायी सामाजिक व्यवस्था की नींव डाली जा सके।

उनका संसदीय संस्थाओं के प्रति अत्यधिक आदर था और उन्होंने सभा की गरिमा बनाए रखने के लिए अथक प्रयास किया। ढिल्लों का मानना था कि सभा की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि सभा में सभी वर्ग अनुशासन से कार्य करें और न केवल नियमों और विनियमों का बल्कि प्रथाओं और परम्पराओं का भी सम्मान करें। सभा की गरिमा बनाए रखने के लिए सदस्यों में सहिष्णुता होनी चाहिए और अपने विरोधियों सहित अन्य सदस्यों की बात को धैर्य से सुनना चाहिए और उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों का तर्कपूर्ण और संयम से उत्तर देना चाहिए।

ढिल्लों सभा के नियमों का दृढ़ता से पालन करने में विश्वास रखते थे। वर्ष 1970 में किसी कैबिनेट मंत्री के नाम कार्यसूची में शामिल किए गए पत्रों को किसी अन्य मंत्रालय के उपमंत्री द्वारा सभा पटल पर रखे जाने पर कुछ सदस्यों से आपत्ति की थी। उस समय ढिल्लों ने टिप्पणी की थी कि संबंधित मंत्री की अनुपस्थिति में उसी मंत्रालय के राज्य मंत्री अथवा उपमंत्री ही सभा पटल पर पत्र रख सकते हैं। यदि वे अनुपस्थित रहते हैं और उसकी सूचना विधिवत् नहीं देते हैं तो उस स्थिति में वे किसी अन्य मंत्री को सभा पटल पर पत्र रखने की अनुमति नहीं देंगे।

ढिल्लों का यह दृढ़ मत था कि कार्यपालिका को विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। उन्हें इस बात का पूरा अहसास था कि कानून बनाने की शक्ति विधायिका के क्षेत्राधिकार में ही होनी चाहिए इसलिए ढिल्लों ने अपने पूर्ववर्ती अध्यक्षों के इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए कहा कि सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अध्यादेश केवल तभी जारी किए जाएं जब वास्तव में आपात स्थिति हो अथवा ऐसी तात्कालिक परिस्थिति हो जो ऐसी कार्यवाही को उचित ठहरा सके।

एक अन्य अवसर पर मार्च, 1970 में जब संसद का सत्र चल रहा था तो सरकार ने सभा को सूचित किए बिना ही कुछ वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि कर दी थी। उस घोषणा पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ढिल्लों ने टिप्पणी की थी कि जब संसद का सत्र चल रहा है तो सभा को सूचित किए बिना ऐसे निर्णयों की घोषणा करना अनुचित है।

ढिल्लों ने 1 दिसम्बर, 1975 को अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और उन्होंने उसी दिन केन्द्रीय मंत्रिमंडल में नौवहन और परिवहन मंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की। वे 1977 तक इस पद पर रहे। 1980 में वे योजना आयोग के सदस्य बने। उन्होंने 1980-82 के दौरान कनाडा में भारतीय उच्चायुक्त की हैसियत से कार्य किया। उच्चायुक्त की हैसियत से कार्य करते हुए वह एक अनुभवी राजनयिक साबित हुए और उन्होंने भारत-कनाडा संबंधों को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

ढिल्लों सितम्बर, 1985 में आठवीं लोक सभा के लिए इस बार फिरोजपुर निर्वाचन क्षेत्र से सदस्य निर्वाचित हुए। उन्हें शीघ्र ही कृषि मंत्री के रूप में केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया और वे 12 मई, 1986 से 14 फरवरी, 1988 तक इस पद पर रहे। केन्द्रीय मंत्री के रूप में ढिल्लों ने अपने दायित्वों का निर्वहन उत्कृष्टता से किया।

ढिल्लों राष्ट्रमंडल संसदीय संघ और अन्तर-संसदीय संघ से अनेक वर्षों तक निकट रूप से जुड़े रहे। उन्होंने अक्तूबर 1969 में पोर्ट ऑफ स्पेन (ट्रिनीडाड और टोबेगो) में पन्द्रहवें, सितम्बर 1971 में कुआलालम्पुर (मलेशिया) में सत्तरहवें, अक्तूबर 1972 में ब्लातीरे (मलावी) में अट्ठारहवें और सितम्बर, 1973 में लंदन (युनाइटेड किंगडम) में हुए उन्नीसवें राष्ट्रमंडल संसदीय सम्मेलन में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। उन्होंने राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की कार्यकारी समिति में एशियाई क्षेत्रीय प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया और वर्ष 1974 में उन्हें कोलम्बो में इस समिति का प्रेजीडेंट नियुक्त किया गया। उन्होंने अक्तूबर-नवम्बर, 1975 में नई दिल्ली में हुए इक्कीसवें राष्ट्रमंडल संसदीय सम्मेलन की अध्यक्षता की।

ढिल्लों ने सितम्बर, 1969 में (ओटावा) में हुए राष्ट्रमंडलीय अध्यक्षों और पीठासीन अधिकारियों के प्रथम सम्मेलन में भी भाग लिया। उन्होंने वर्ष 1970-71 में भारत में हुए राष्ट्रमंडलीय अध्यक्षों और पीठासीन अधिकारियों के द्वितीय सम्मेलन का बखूबी संचालन किया और उसकी अध्यक्षता की। इसके अलावा उन्होंने राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की कार्यकारी समिति की अनेक बैठकों के साथ-साथ राष्ट्रमंडलीय अध्यक्षों और पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन सम्बन्धी स्थायी समिति की बैठकों में भी भाग लिया। वे 1971 से 1974 तक इसकी स्थायी समिति के सभापति रहे।

ढिल्लों ने अक्तूबर-नवम्बर 1969 में नई दिल्ली में हुए सत्तावनवें अन्तर-संसदीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। यह पहला अवसर था जब यह सम्मेलन भारत में हुआ था। ढिल्लों ने इस सम्मेलन की कार्यवाहियों का अत्यंत गरिमामय ढंग से संचालन किया। वे अनेक वर्षों तक संघ की कार्यकारी समिति में बने रहे।

ढिल्लों को अक्तूबर 1973 में जिनेवा में अन्तर-संसदीय परिषद् के 113 वें सत्र का अध्यक्ष चुना गया। इस प्रतिष्ठित पद पर आसीन होने वाले वे पहले एशियाई व्यक्ति थे। यह उनके व्यक्तिगत गुणों और अन्तर-संसदीय संघ के लिए मेहनत और ईमानदारी से किए गए कार्य की पहचान थी। ढिल्लों ने सभी संसदों के सदस्यों के बीच व्यक्तिगत सम्पर्क को बढ़ावा देने और उनहें साझा कार्यवाही के लिए संगठित करने सम्बन्धी लक्ष्यों हेतु अत्यधिक योगदान दिया ताकि वे अपने देशों में प्रतिनिधि संस्थाओं की सुदृढ़ स्थापना और विकास करें तथा अंतर्राष्ट्रीय शांति और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए तन-मन लगाकर कार्य करें।

अक्तूबर, 1974 में टोकियो में उन्हें पुनः अन्तर-संसदीय परिषद् का अध्यक्ष चुना गया और वे इस पद पर 1976 तक आसीन रहे। परिषद् के अध्यक्ष के रूप में ढिल्लों ने अंतर संसदीय संघ के अनेक सम्मेलनों तथा बैठकों की अध्यक्षता की।

ढिल्लों ने भारतीय संसद के विदेश जाने वाले शिष्टमंडलों के नेता के रूप में भारतीय संसद के लिए अपार गौरव और प्रतिष्ठा अर्जित की। उन्हें वर्ष 1985 और 1986 में जिनेवा में हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के 41 वें तथा 42 वें सत्रों में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व करने का भी गौरव प्राप्त हुआ।

ढिल्लों ने अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं और विद्वत निकायों को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभाई। वे सन् 1956 से पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, 1971-78 तथा पुनः 1985-86 के दौरान गुरू नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर तथा 1968-69 के दौरान पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के सिंडिकेट तथा सिनेट के निर्वाचित सदस्य रहे। उन्हें 1974-81 तथा 1984-86 के दौरान पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के विधि संकाय के "डीन" का पद धारण करने का गौरव भी प्राप्त हुआ था। इसके अतिरिक्त ढिल्लों कुछ वर्षों तक यादवेन्द्र पब्लिक स्कूल, पटियाला और पब्लिक स्कूल, नाभा के शासी निकाय के सदस्य रहे। वे अन्य अनेक शैक्षणिक संस्थाओं के कार्यकरण से भी जुड़े रहे।

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी ढिल्लों अनेक सामाजिक गतिविधियों से जुड़े रहे। वे जालियांवाला बाग स्मारक न्यास, अमृतसर के सदस्य थे। प्रकाण्ड विद्वान के रूप में उन्होंने चैत्रिक अभिनन्दन ग्रंथ के सह-सम्पादक के रूप में कार्य किया उन्होंने सामयिक चिन्तन के विषयों पर अनेक पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया और लेख लिखे। वे एक प्रगतिशील किसान, एक खिलाड़ी तथा नागर विमानन और ग्लाइडिंग क्लब के संरक्षक थे। एक अनुभवी स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनके द्वारा की गई राष्ट्र सेवा का आदर करते हुए उन्हें ताम्रपत्र से सम्मानित किया गया।

ढिल्लों को पंजाब विश्वविद्यालय ने 1969 में, पंजाबी विश्वविद्यालय ने 1971 में तथा कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय ने 1973 में एल.एल.डी. की मानद उपाधि से सम्मानित किया। गुरूनानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर ने 1971 में उन्हें डी. लिट की उपाधि प्रदान की। हम्वोल्ट विश्वविद्यालय, जर्मनी द्वारा 1973 में उनहें डॉक्टर ऑफ पोलिटीकल साइंस की उपाधि प्रदान की गइ तथा 1973 में सुंग क्यूंक्वां विश्वविद्यालय (कोरिया गणराज्य) द्वारा पी.एच.डी. की उपाधि प्रदान की गई। ढिल्लों द्वारा अन्तर-संसदीय संघ के आदर्शों को बढ़ावा देने के लिए किए गए उत्कृष्ट योगदान का सम्मान करते हुए अन्तर-संसदीय संघ ने उन्हें 1993 में नई दिल्ली में हुए 89 वें अन्तर-संसदीय सम्मेलन के उद्घाटन समारोह के अवसर पर मरणोपरांत अंतर-संसदीय संघ पुरस्कार से सम्मानित किया।

डा. गुरदयाल ढिल्लों का देहावसान 23 मार्च, 1992 को हुआ।

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