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प्रस्तावना अध्यक्ष और समितियां
कार्यकाल अध्यक्ष और सदस्यगण
अध्यक्ष का निर्वाचन अध्यक्ष और अन्तर-संसदीय सम्बन्ध
पीठासीन अध्यक्ष
अध्यक्ष की प्रशासनिक भूमिका
अध्‍यक्ष के निदेश निष्कर्ष
सभा की कार्यवाही का विनियमन    

 

प्रस्तावना

अध्यक्ष के पद का हमारे संसदीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान है। अध्यक्ष के पद के बारे में कहा गया है कि संसद सदस्य अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, अध्यक्ष सदन के ही पूर्ण प्राधिकार का प्रतिनिधित्व करता है। वह उस सदन की गरिमा और शक्ति का प्रतीक है जिसकी वह अध्यक्षता करता है। अतः यह अपेक्षा की जाती है कि इस उच्च गरिमा वाले पद का पदाधिकारी एक ऐसा व्यक्ति हो, जो सदन के सभी आविर्भावों में उसका प्रतिनिधित्व कर सके।

अध्यक्ष को सौंपा गया दायित्व इतना दुर्वह है कि वह संसदीय जीवन के किसी भी पहलू को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। सभा में उसके कार्यकलापों की बारीकी से संवीक्षा होती है और जनसंचार माध्यमों में इनका व्यापक रूप से बखान किया जाता है। संसद की कार्यवाही का दूरदर्शन पर प्रसारण आरंभ किये जाने से यह छोटा पर्दा सभा की दिन-प्रतिदिन के कार्यकलापों को देश में लाखों-करोड़ों घरों तक पहुंचा देता है जिससे अध्यक्ष की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। यद्यपि, अध्यक्ष सभा में कभी-कभार ही बोलता है, परन्तु वह जब भी कुछ बोलता है तो सम्पूर्ण सदन के लिए बोलता है। अध्यक्ष को संसदीय लोकतंत्र की परम्पराओं का वास्तविक संरक्षक माना जाता है। उसकी अनन्य स्थिति का चित्रण इसी तथ्य से हो जाता है कि उसे हमारे देश के पूर्वता-अधिपत्र में एक अत्यधिक ऊँचा स्थान दिया गया है और उसका नाम राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री के तत्काल पश्चात् रखा गया है। भारत में अध्यक्ष के पद को देश के संविधान के द्वारा लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों तथा प्रथाओं और परिपाटियों के द्वारा संसदीय कार्यवाही का सुचारू संचालन में उसकी सहायता करने और अपने पद की स्वतंत्रता और निष्पक्षता की रक्षा करने हेतु पर्याप्त शक्तियां दी गई हैं। भारत के संविधान में यह प्रावधान है कि अध्यक्ष के वेतन तथा भत्तों पर संसद में मतदान नहीं किया जाएगा और ये भारत की संचित निधि पर भारित होंगे।  

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कार्यकाल

अध्यक्ष, इस पद पर निर्वाचित किये जाने की तारीख से लेकर जिस लोक सभा में उसका निर्वाचन किया गया हो, उसके भंग होने के बाद नई लोक सभा की प्रथम बैठक के ठीक पहले तक इस पर आसीन रहता है। वह पुनः इस पद पर निर्वाचित हो सकता है। लोक सभा भंग होने की स्थिति में यद्यपि अध्यक्ष संसद सदस्य नहीं रहता है परन्तु उसे अपना पद नहीं छोड़ना पड़ता है। अध्यक्ष किसी भी समय उपाध्यक्ष को लिखित सूचना देकर अपने पद से त्याग-पत्र दे सकता है। अध्यक्ष को उसके पद से लोक सभा में उपस्थित सदस्यों द्वारा बहुमत से पारित संकल्प द्वारा ही हटाया जा सकता है। इस आशय से प्रस्तुत संकल्प में कुछ शर्तें अनिवार्यतः पूरी करनी होती हैं जैसे कः इसमें लगाए गए आरोप सुस्पष्ट होने चाहिये, इसमें तर्क-वितर्क, निष्कर्ष, व्यंग्योक्ति, लांछन और मानहानि संबंधी कोई कथन आदि नहीं होना चाहिए। यही नहीं, बल्कि चर्चा भी संकल्प में लगाये गये आरोपों तक ही सीमित रहनी चाहिए। ऐसे किसी संकल्प को प्रस्तुत किये जाने के कम से कम 14 दिन पहले इस आशय की सूचना देनी भी आवश्यक है।

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अध्यक्ष का निर्वाचन

भारतीय संसद के निचले सदन, लोक सभा में, दोनों पीठासीन अधिकारियों, अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का निर्वाचन, इसके सदस्यों में से सभा में उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत द्वारा किया जाता है। वैसे तो अध्यक्ष के निर्वाचन के लिए कोई विशेष योग्यता निर्धारित नहीं की गई है और संविधान में मात्र यह अपेक्षित है कि वह सभा का सदस्य होना चाहिए। परन्तु अध्यक्ष का पद धारण करने वाले व्यक्ति के लिए संविधान, देश के कानून, प्रक्रिया नियमों और संसद की परिपाटियों की समझ होना एक महत्वपूर्ण गुण माना जाता है। लोक सभा अध्यक्ष का निर्वाचन सभा के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना होती है। नव-गठित सभा के प्रथम कार्यों में से एक कार्य अध्यक्ष का निर्वाचन करना होता है। सामान्यतः सत्तारूढ़ दल के सदस्य को ही अध्यक्ष निर्वाचित किया जाता है। तथापि, कई वर्षों से एक स्वस्थ परिपाटी विकसित हुई है जिसके अन्तर्गत सत्तारूढ़ दल सदन में अन्य दलों और समूहों के नेताओं के साथ अनौपचारिक विचार-विमर्श करने के पश्चात् ही अपना उम्मीदवार घोषित करता है। इस परिपाटी से यह बात सुनिश्चित होती है कि निर्वाचित होने के बाद अध्यक्ष सदन के सभी वर्गों का सम्मान प्राप्त करता है। ऐसे भी उदाहरण हैं जब कोई सदस्य सत्तारूढ़ दल अथवा सत्तारूढ़ गठबंधन में से किसी का भी सदस्य नहीं था, किंतु फिर भी उसे अध्यक्ष पद हेतु निर्वाचित किया गया था। उम्मीदवार के संबंध में एक बार निर्णय ले लिए जाने पर आमतौर पर प्रधान मंत्री तथा संसदीय कार्य मंत्री द्वारा उसके नाम का प्रस्ताव किया जाता है। यदि एक से अधिक प्रस्ताव प्राप्त होते हैं तो उनकी क्रमबद्ध रूप में प्रविष्टि की जाती है। यदि एक से अधिक प्रस्ताव प्राप्त होते हैं तो उनकी क्रमबद्ध रूप में प्रविष्टि की जाती है। यदि नव-गठित सभा हो तो सामयिक अध्यक्ष उस बैठक की अध्यक्षता करता है जिसमें अध्यक्ष का चुनाव किया जाता है। यदि लोक सभा के बाद के कार्यकाल के दौरान अध्यक्ष का चुनाव होता है तो उपाध्यक्ष सभा की अध्यक्षता करता है। ऐसे प्रस्तावों को जो प्रस्तुत किये जाते हैं और जो विधिवत अनुमोदित हों, एक-एक करके उसी क्रम में रखा जाता है जिस क्रम में वे प्रस्तुत किये गये हों और यदि आवश्यक हो तो सभा में मत विभाजन द्वारा फैसला किया जाता है। यदि कोई प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है तो पीठासीन अधिकारी बाद के प्रस्तावों को रखे बिना ही घोषणा करेगा कि स्वीकृत प्रस्ताव में प्रस्तावित सदस्य को सभा का अध्यक्ष चुन लिया गया है। परिणाम घोषित किए जाने के पश्चात् नवनिर्वाचित अध्यक्ष को प्रधान मंत्री और विपक्ष के नेता द्वारा अध्यक्ष आसन तक ले जाया जाता है। तत्पश्चात् सभा में सभी राजनैतिक दलों और समूहों के नेताओं द्वारा अध्यक्ष को बधाई दी जाती है और उसके प्रत्युत्तर में वह सभा में धन्यवाद भाषण देता है और इसके बाद नया अध्यक्ष अपना कार्यभार ग्रहण करता है।  

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पीठासीन अध्यक्ष  

लोक सभा कक्ष में अध्यक्ष का आसन इस प्रकार रखा गया है कि वह सबसे अलग दिखायी दे और अपने इस आसन से अध्यक्ष समूचे सदन पर प्रभावी दृष्टि रख सके। जहां तक सभा की कार्यवाही का संबंध है, वह संविधान के उपबंधों और लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों के अनुसार कार्यवाही का संचालन करता है। वह पूर्व अध्यक्षों द्वारा दिए गए निर्देशों, जिन्हें समय-समय पर संकलित किया जाता है, से भी लाभान्वित होता है। इसके अतिरिक्त, लोक सभा के महासचिव और सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारी संसदीय कार्यकलापों और प्रक्रिया संबंधी मामलों में अध्यक्ष की सहायता करते हैं। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष उनके कार्यों का निर्वहन करता है। अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में सभापति तालिका का कोई सदस्य सभा की अध्यक्षता करता है।

अध्यक्ष को अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले प्रशासनिक, न्यायिक और विनियमन संबंधी मामलों में अनेक कार्यों का निष्पादन करना पड़ता है। उसे संविधान और नियमों के अंतर्गत तथा अन्तर्निहित रूप से व्यापक अधिकार प्राप्त हैं। लोक सभा का परम्परागत मुखिया और उसका प्रमुख प्रवक्ता होने के नाते अध्यक्ष समस्त सदन की सामूहिक राय को अभिव्यक्त करता है। वास्तव में सभा के कार्यों से संबंधित प्रावधानों पर उनका निर्णय और उनकी व्याख्या अन्तिम होती है। उनका निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होता है तथा आमतौर पर उसके निर्णय पर न तो कोई प्रश्न चिह्न लगाया जा सकता है, और न ही कोई चुनौती दी जा सकती है अथवा उसकी आलोचना की जा सकती है।  

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सभा की कार्यवाही का विनियमन    

सभा की प्रक्रिया को विनियमित करने हेतु नियम बनाने का अंतिम अधिकार वैसे तो प्रत्येक सभा में ही विहित होता है, परन्तु भारत की संसद के नियमों के अध्ययन से पता चलता है कि उनमें दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को व्यापक अधिकार दिए गए हैं। पीठासीन अधिकारी ही यह निर्णय करता है कि कोई प्रश्न स्वीकार्य है अथवा नहीं; वही यह निर्णय करता है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के लिए संशोधन किस रूप में प्रस्तुत किये जाएं। किसी विधेयक पर कोई भी संशोधन प्रस्तुत करने के लिए पीठासीन अधिकारी की अनुमति आवश्यक है। यदि सभा के पास कोई विधेयक लंबित पड़ा है, तो अध्यक्ष ही यह निर्णय करता है कि विधेयक के विभिन्न खण्डों के लिए संशोधन प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए अथवा नहीं। जहां तक सभा में चर्चाओं के विनियमन का प्रश्न है, अध्यक्ष ही यह फैसला करता है कि कोई सदस्य कब बोलेगा और कितनी देर तक बोलेगा। वह किसी सदस्य को अपना भाषण बीच में ही समाप्त करने के लिए कह सकता है अथवा वह यह निर्णय भी करता है कि किसी सदस्य विशेष द्वारा की गई कोई टिप्पणी सभा की कार्यवाही में सम्मिलित की जाए या नहीं। यदि अध्यक्ष उचित समझे तो वह किसी सदस्य को किसी निर्धारित अवधि के लिए सभा से चले जाने का निर्देश भी दे सकता है। कोई सदस्य उनके आदेशों अथवा निर्देशों का उल्लंघन करता है तो वह उसका नाम लेकर चेतावनी दे सकता है तथा ऐसे मामलों में सदस्य को सभा से जाना भी पड़ सकता है। अध्यक्ष ही सभा, सभा की समितियों और सदस्यों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों का संरक्षक है। यह पूरी तरह अध्यक्ष पर ही निर्भर करता है कि वह किसी विशेषाधिकार संबंधी मामले को जांच-पड़ताल और उसकी रिपोर्ट देने के लिए विशेषाधिकार समिति को सौंपे। उनके माध्यम से ही सभा के निर्णय, बाहरी व्यक्तियों और अधिकारियों को प्रेषित किये जाते हैं। अध्यक्ष ही यह निश्चित करता है कि सभा की कार्यवाही किस रूप में और किस ढंग से प्रकाशित की जाए। जहां कहीं भी आवश्यक हो वह सभा के आदेशों का पालन करवाने हेतु वारंट भी जारी करता है और सभा की ओर से भर्त्सना भी करता है। संपूर्ण संसदीय सम्पदा (एस्टेट) अध्यक्ष के अधिकार क्षेत्र के नियंत्रणाधीन है। किसी सदस्य द्वारा उठाए गए प्रस्ताव पर सभा का मत जानने के लिए अध्यक्ष उस प्रस्ताव को सभा में प्रस्तुत करता है और उस पर सभा का निर्णय लेता है। व्यवस्था संबंधी उठाए गए प्रश्नों पर भी अध्यक्ष ही निर्णय करता है कि क्या उठाया गया प्रश्न व्यवस्था का प्रश्न है अथवा नहीं। अध्यक्ष को प्रक्रिया के नियमों के अंतर्गत कुछ अवशिष्ट शक्तियां भी प्राप्त हैं। किन्हीं नियमों के अंतर्गत नहीं आने वाले सभी मामलों सहित नियमों के कार्यान्वयन से संबंधित सी मसले भी अध्यक्ष द्वारा ही विनियमित किये जाते हैं। इन शक्तियों के प्रयोग से तथा अपनी अन्तर्निहित शक्तियों के अन्तर्गत अध्यक्ष समय-समय पर निर्देश जारी करता है जिन्हें सामान्यतः प्रक्रिया नियमों की तरह उल्लंघनीय माना जाता है। सभा से संबंधित अथवा प्रक्रिया के नियमों से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या के संबंध में वह प्रायः अपने विनिर्णय देता है जिनका सभी सदस्य आदर करते हैं और ऐसे विनिर्णय बाध्यकारी प्रवृत्ति के होते हैं। संविधान के अन्तर्गत, संसद की दोनों सभाओं के परस्पर संबंधों से जुड़े कतिपय मामलों में अध्यक्ष की एक विशेष स्थिति है। वित्तीय मामलों में लोक सभा के पास अभिभावी शक्तियां होने के कारण वह धन विधेयकों का प्रमाणन करता है और इस बारे में अंतिम निर्णय लेता है कि कौन से मामले वित्तीय मामले हैं। किसी विधायी मामले के संबंध में दोनों सभाओं में असहमति होने की स्थिति में बुलाई गई संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोक सभा अध्यक्ष ही करता है। जहाँ तक संसदीय दलों को मान्यता प्रदान करने का प्रश्न है, अध्यक्ष ही ऐसी मान्यता दिये जाने के लिए आवश्यक दिशानिर्देश निर्धारित करता है। अध्यक्ष ही लोक सभा में विपक्ष के नेता को मान्यता प्रदान करने के बारे में निर्णय लेता है। 52वें संविधान संशोधन के जरिए, दल-बदल के आधार पर लोक सभा के किसी सदस्य को अयोग्य ठहराने से संबंधित शक्ति भी अध्यक्ष में निहित हो गई है। अध्यक्ष सभा में निधन संबंधी उल्लेख और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का विधिवत उल्लेख करता है तथा लोक सभा के प्रत्येक सत्र की समाप्ति पर तथा सभा का कार्यकाल समाप्त होने पर विदाई भाषण देता है। यद्यपि अध्यक्ष स्वयं भी सभा का सदस्य होता है, तथापि सभा में मतदान के दौरान पक्ष तथा विपक्ष के बराबर मत होने की स्थिति को छोड़कर वह अन्य किसी अवसर पर मतदान नहीं करता। आज तक लोक सभा अध्यक्ष को इस अनन्य निर्णायक मतदान के अधिकार का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ी है।

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अध्यक्ष और समितियां

सभा की समितियां अध्यक्ष के निदेशाधीन कार्य करती हैं। इन सभी समितियों का गठन अध्यक्ष द्वारा अथवा सभा द्वारा किया जाता है। अध्यक्ष ही सभी संसदीय समितियों के सभापति नामित करता है। समितियों के कार्यकरण में प्रक्रिया संबंधी समस्याएं उठाने पर इन्हें अध्यक्ष के समक्ष निदेश हेतु रखा जाता है। कार्य-मंत्रणा समिति, सामान्य प्रयोजनों संबंधी समिति और नियम समिति का सभापति स्वयं अध्यक्ष होता है।

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अध्यक्ष और सदस्यगण  

अध्यक्ष सभा का सदस्य होने के साथ-साथ इसका पीठासीन अधिकारी भी होता है। अध्यक्ष का दायित्व यह सुनिश्चित करना होता है कि प्रत्येक परिस्थिति में संसदीय शिष्टाचार का निर्वहन किया जाए। इसके लिए नियमों के अंतर्गत उसे व्यापक अनुशासनिक शक्तियां प्रदान की गई हैं। जहां एक ओर अध्यक्ष का प्रयास होता है कि सदन में सभी वर्गों के सदस्यों को विचार व्यक्त करने का समुचित अवसर प्रदान किया जाये, वहीं दूसरी ओर उसे सभा की मर्यादा भी बनाए रखनी पड़ती है। ऐसी परिस्थिति में अध्यक्ष का पद निश्चित तौर पर अस्पृहणीय हो जाता है। वास्तव में यह एक नाजुक कार्य है जिसमें उच्चस्तरीय कूटनीति, दृढ़ता, अभिप्रेरणा और निरंतर अध्यवसाय की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही अध्यक्ष सभा के सभी सदस्यों से व्यक्तिगत तौर पर तथा लोक सभा में राजनैतिक पार्टियों और दलों के नेताओं से सम्पर्क और बातचीत के विभिन्न अनौपचारिक द्वार खोले रखता है। संसद के प्रत्येक अधिवेशन के पूर्व मध्याह्न भोज के दौरान आयोजित बैठक में वह संसदीय दलों के नेताओं से बातचीत करता है। ऐसे महत्वपूर्ण अवसरों पर उसे विभिन्न मुद्दों पर राजनैतिक दलों के विचार जानने का अवसर मिलता है। अध्यक्ष को यह ध्यान रखना पड़ता है कि संसद की कार्यवाही संविधान में निहित प्रावधानों के अनुरूप चले। इस प्रकार कुल मिलाकर अध्यक्ष का कार्य सदा ही जटिल होता है।

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अध्यक्ष और अन्तर-संसदीय सम्बन्ध

अध्यक्ष को लोक सभा के प्रमुख की हैसियत से कुछ अन्य कार्य भी करने होते हैं। वह 1949 में स्थापित भारतीय संसदीय ग्रुप का पदेन प्रेसीडेन्ट भी है। यह ग्रुप अन्तर-संसदीय संघ के राष्ट्रीय ग्रुप के रूप में और राष्ट्रमण्डल संसदीय संघ की मुख्य शाखा के रूप में कार्य करता है। इस ग्रुप का प्रेसीडेन्ट होने के नाते अध्यक्ष राज्य सभा के सभापति से परामर्श करके विदेश भेजे जाने वाले विभिन्न भारतीय संसदीय शिष्टमण्डलों के सदस्यों को भी नामित करता है। प्रायः अध्यक्ष स्वयं ही ऐसे शिष्टमंडलों का नेतृत्व करता है। इसके अतिरिक्त, वह भारत में विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन का सभापति भी होता है।

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अध्यक्ष की प्रशासनिक भूमिका   

अध्यक्ष, लोक सभा सचिवालय का प्रमुख है और यह सचिवालय उसके नियंत्रण और निदेशों के अधीन कार्य करता है। सभा के सचिवालय कर्मियों, संसद परिसर और इसके सुरक्षा प्रबंधन में अध्यक्ष का प्राधिकार सर्वोपरि है। सभी अतिथि, आगंतुक और प्रेस संवाददाता उसके अनुशासन संबंधी नियमों और आदेश के अधीन होते हैं तथा इनमें से किसी का भी उल्लंघन करने पर उल्लंधनकर्त्ता को संसद भवन परिसर से निष्कासन या दीर्घाओं में आने पर निश्चित या अनिश्चित अवधि के लिए रोक लगाए जाने जैसी सजा दी जा सकती है अथवा मामला अधिक गंभीर होने पर इसे अवमानना या विशेषाधिकार हनन का मामला मानकर उपयुक्त सजा दी जा सकती है। अध्यक्ष की अनुमति के बिना संसद भवन में कोई भी परिवर्तन और परिवर्द्धन नहीं किया जा सकता तथा संसदीय संपदा में किसी नए भवन का निर्माण नहीं किया जा सकता।

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भारत में अध्यक्ष का पद एक जीवंत और गतिशील संस्था है जिसे संसद के अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में आने वाली वास्तविक आवश्यकताओं तथा समस्याओं का समाधान करना पड़ता है। अध्यक्ष सभा का संवैधानिक और औपचारिक प्रमुख होता है। वह सभा का प्रमुख प्रवक्ता होता है। प्रतिनिधिक लोकतंत्र में इस संस्था के महत्वपूर्ण स्थान के अनुरूप सभा की कार्यवाही के संचालन का उत्तरदायित्व अध्यक्ष पर ही होता है। हमारे संविधान-निर्माताओं ने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस पद के महत्व को स्वीकार करके ही देश की शासन प्रणाली में प्रमुख एवं प्रतिष्ठित पदों में से एक के रूप में इस पद को मान्यता प्रदान की थी।

भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के एक अग्रणी नेता एवं भारतीय संविधान के प्रेरणास्रोत, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारत में अध्यक्ष पद का सही संदर्भ देते हुए कहा थाः

"अध्यक्ष सभा का प्रतिनिधि है। वह सभा की गरिमा, सभा की स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है और चूंकि, सभा राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए एक प्रकार से अध्यक्ष राष्ट्र की स्वतंत्रता और स्वाधीनता का प्रतीक बन जाता है। अतएव, यह उचित ही है कि इस पद का सम्मान एवं स्वतंत्रता कायम रहे और इस पर सदैव असाधारण योग्यता एवं निष्पक्षता वाला व्यक्ति ही आसीन हो।"

इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक लोक सभा के कार्य-काल में यह पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदों में से एक क्यों रहा है।

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