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 एन. संजीव रेड्डी

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प्रायः यह कहा जाता है कि पीठासीन अधिकारी को न केवल निष्पक्ष तथा समदर्शी होना चाहिए अपितु वह ऐसा दिखना भी चाहिए। यह एक कठिन कार्य है क्योंकि प्रायः वह किसी न किसी राजनैतिक दल के टिकट पर निर्वाचित होकर सभा में आता है। कुछ लोगों का मत है कि इस पद पर निर्वाचित होने के पश्चात् अध्यक्ष को अपने दल का सदस्य नहीं बना रहना चाहिए। कुछ अन्य लोगों का मत यह है कि हमारी दलीय प्रणाली में यह अनुचित होगा कि अध्यक्ष अपने आप को उस दल से अलग कर ले जिसके टिकट पर उसने चुनाव जीता है। हमारे संसदीय इतिहास में स्वतंत्रता के पश्चात् डा. नीलम संजीव रेड्डी ऐसे एकमात्र अध्यक्ष हैं जिन्होंने अध्यक्ष पद का कार्यभार सम्भालने के बाद अपने दल से औपचारिक रूप से त्यागपत्र दे दिया था। वह ऐसे एकमात्र अध्यक्ष थे जिन्हें सर्वसम्मति से इस गणतत्र के राष्ट्रपति चुने जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके विशिष्ट सार्वजनिक जीवन की खास बात यह थी कि उन्होंने संसदीय लोकतंत्र और इसके मूल सिद्धांतों का पूरी तरह पालन करते हुए देश में विभिन्न पदों पर बेहतरीन ढंग से कार्य किया।

नीलम संजीव रेड्डी का जन्म 12 मई, 1913 को आंध्र प्रदेश राज्य के अनंतपुर जिले के इल्लूर गांव में हुआ था। वह एक प्रबुद्ध मध्यम वर्गीय परिवार से थे। उनकी प्राथमिक शिक्षा प्रतिष्ठित थियोसोफिकल हाई स्कूल, अडयार, मद्रास में हुई। विद्यालय के आध्यात्मिक वातावरण ने बालक रेड्डी के मन पर गहरी छाप छोड़ी। बाद में उन्होंने उच्च शिक्षा के लिऐ अनंतपुर के गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन उनके भाग्य में शायद कुछ और ही लिखा था।

जुलाई, 1929 में महात्मा गांधी के अनंतपुर में आगमन से रेड्डी के जीवन में एक मोड़ आया। अपने समय के कई अन्य नवयुवकों की भांति रेड्डी पर भी गांधी जी के विचारों, शब्दों और कार्यों का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने विदेशी वस्त्रों को त्याग दिया और खादी को अपने पहनावे के रूप में अपनाया। वह अपनी पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। उन्हें कालेज छोड़ने के अपने निर्णय पर कभी भी पछतावा नहीं हुआ।

रेड्डी ने युवा कांग्रेस की विभिन्न गतिविधियों में सक्रिय भाग लिया और 1937 में छोटी आयु में ही वे आंध्र प्रोविन्शियल कांग्रेस कमेटी (ए.पी.सी.सी.) के सचिव बन गये। रेड्डी ने अपने चरित्र के अनुरूप ए.पी.सी.सी. के कार्यों को अति सावधानीपूर्वक और सुव्यवस्थित ढंग से किया। यह उनके नेतृत्व के गुणों और उनके संगठन की योग्यता का ही सबूत था कि वह लगातार दस वर्षों तक इस पद पर बने रहे। 1940-45 के दौरान वह स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण कई बार जेल गए।

रेड्डी का विधायी जीवन 1946 में तब शुरू हुआ जब वह मद्रास विधान सभा के लिए निर्वाचित हुए और मद्रास कांग्रेस विधान मंडल दल के सचिव बने। अगले ही वर्ष वह भारत की संविधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए और संविधान सभा, जो आने वाली पीढ़ियों के भाग्य का निर्माण कर रही थी, की कार्यवाहियों में सक्रिय रूप से भाग लिया। 1949 में वह राज्य की राजनीति में वापस चले गए और अप्रैल, 1949 से अप्रैल, 1951 तक उन्होंने तत्कालीन मद्रास राज्य में नशाबन्दी, आवास और वन मंत्री के रूप में काम किया।

1951 में रेड्डी ए.पी.सी.सी. के अध्यक्ष निर्वाचित हुए, जहां उन्होंने 1952 में केन्द्र में राज्य सभा का सदस्य बनने से पहले एक वर्ष तक काम किया, वह राज्य सभा के थोड़े समय के लिए ही सदस्य रहे। 1952 में उनकी राजनीतिक सूझबूझ, जोश और गतिशीलता के कारण उन्हें नए राज्य आंध्र प्रदेश का उप मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया जहां उन्होंने आंध्र प्रदेश के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तत्पश्चात् अक्तूबर, 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के फलस्वरूप, आंध्र प्रदेश राज्य का गठन किया गया और रेड्डी नवगठित राज्य के मुख्यमंत्री बनाये गये।

मुख्यमंत्री के रूप में रेड्डी ने अनुभव किया कि लोकतंत्र केवल तभी प्रभावी ढंग से काम कर सकता है जब निचले स्तर तक के लोग राजनीतिक रूप से शिक्षित, प्रशिक्षित और जानकार हों। उन्होंने एक ऐसे युग की परिकल्पना की थी जिसमें शक्तियां विकेन्द्रित हों। वह सदैव निम्नतम स्तर पर लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रयास करते रहे। रचनात्मक नेतृत्व, प्रगतिशील विचारधारा और साथ ही नवगठित राज्य की विविध समस्याओं के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण के कारण उनकी सर्वत्र प्रशंसा की गई।

शीघ्र ही रेड्डी राष्ट्रीय स्तर के राजनेता के रूप में उभरने लगे। 1959 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने के लिए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। रेड्डी ने सत्ता प्राप्ति को कभी अपना लक्ष्य नहीं माना, यह तो उनके लिए जन-कल्याण के उनके लक्ष्य का साधन मात्र रहा है।

दो बार कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष रहने के बाद रेड्डी आंध्र प्रदेश लौट गये और दूसरी बार वहां के मुख्यमंत्री बने। फरवरी, 1964 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बस मार्ग राष्ट्रीयकरण के मामले में शपथ-पत्र न देने के लिए आंध्र प्रदेश सरकार के विरूद्ध कुछ टिप्पणियां किये जाने पर उन्होंने स्वेच्छापूर्वक मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और इस प्रकार सार्वजनिक जीवन में एक उच्च आदर्श स्थापित किया।

9 जून, 1964 को रेड्डी इस्पात और खान मंत्री के रूप में श्री लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में शामिल हुए। उसी वर्ष वह राज्य सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। 1967 में वह श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार में बहुत कम अवधि के लिए परिवहन, विमानन, नौवहन और पर्यटन मंत्री भी रहे।

रेड्डी चौथी लोक सभा के लिए आंध्र प्रदेश के हिन्दुपुर निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित हुए। 17 मार्च, 1967 को रेड्डी चौथी लोक सभा के लिए अध्यक्ष चुने गए जिसका व्यापक स्वागत हुआ। वह इस सम्मानित पद की स्वतंत्रता और निष्पक्षता बनाए रखने के लिऐ विशेष प्रयत्नशील रहे क्योंकि वह संसदीय लोकतत्र के सफल कार्य संचालन के लिए इन्हें अपरिहार्य मानते थे। अध्यक्ष पद पर चुने जाने के तुरन्त बाद उन्होंने कांग्रेस दल की अपनी 34 वर्ष पुरानी सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया, और इस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वह पहले ऐसे अध्यक्ष बने जिन्होंने औपचारिक रूप से अपने दल से संबंध विच्छेद कर लिया। उनका यह मानना था कि अध्यक्ष का संबंध सम्पूर्ण सभा से होता है, वह सभी सदस्यों का प्रतिनिधित्व करता है और इसलिए उसे किसी दल से संबद्ध नहीं होना चाहिए या यों कहें कि उसका संबंध सभी दलों से होना चाहिए।

यद्यपि रेड्डी केवल दो वर्ष से कुछ अधिक समय के लिए अध्यक्ष रहे परन्तु जिस विशिष्ट ढंग से उन्होंने सभा की कार्यवाही का संचालन किया, उससे अध्यक्ष पद को गरिमा और विशिष्टता प्राप्त हुई। उन्हें अत्यधिक वैयक्तिक प्राधिकार प्राप्त थे; दूसरों के विचारों की समझने की इच्छा और सभा की भावनाओं की गहन समझ के कारण ही वह संसदीय कार्यवाही को सुव्यवस्थित और प्रभावी ढंग से संचालित कर सके। व्यक्तियों और विषयों के बारे में उन्हें व्यापक अनुभव प्राप्त था और रेड्डी ने इसी के आधार पर श्लाघनीय सहिष्णुता और सामान्य बोध से सभा के भीतर उत्पन्न नाजुक स्थितियों को अत्यधिक कौशल से सुलझाया। उन्होंने सभा की कार्यवाही का संचालन इतने अधिक कुशलतापूर्ण ढंग से किया कि एक भी ऐसा अवसर नहीं आया जब विपक्ष को सभा से बहिर्गमन करना पड़ा हो। इसके अतिरिक्त, जब तक रेड्डी सभा के अध्यक्ष रहे उन्हें उनके प्राधिकारों की उपेक्षा करने के लिए किसी भी सदस्य का नाम नहीं लेना पड़ा।

रेड्डी ने अपने अध्यक्ष काल के दौरान अनेक महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं दीं और परम्परांए स्थापित कीं जिनसे संसदीय परम्पराएं और पद्धतियां और अधिक समृद्ध बनीं। रेड्डी ने पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पर उसी दिन चर्चा की अनुमति प्रदान की जिस दिन राष्ट्रपति ने दोनों सभाओं में अभिभाषण दिया था। उनका मानना था कि अत्यधिक महत्वपूर्ण मामलों को परम्पराओं और पूर्वोदारहणों का सहारा लेकर टाला नहीं जाना चाहिए।

रेड्डी सभा के प्रत्येक सदस्य को अपने विचार व्यक्त करने का समान अवसर प्रदान करने के लिए सदैव सचेत रहे। उन्होंने सभा के भीतर तथा बाहर दोनों जगहों पर सदस्यों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों की पूरी तरह से रक्षा की। उनके अध्यक्ष काल के दौरान लोक सभा के इतिहास में दर्शक दीर्घा से नारे लगाने और सभा में पर्चे फेंकने के लिए सभा की अवमानना करने के अपराध में पहली बार एक व्यक्ति को कारागार की सजा दी गई।

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति का गठन रेड्डी के अध्यक्ष पद के कार्यकाल के दौरान दूसरी महत्वपूर्ण नवीनता थी। 18 दिसम्बर, 1968 को समिति की पहली बैठक का उद्घाटन करते हुए उन्होंने आशा व्यक्त की कि समिति यह सुनिश्चित करेगी कि अनुसूचित जातियों ओर अनुसूचित जनजातियों की प्रगति के लिए संघ सरकार द्वारा उठाए कदमों को कारगर तरीके से क्रियान्वित किया जाए।

19 जुलाई, 1969 को रेड्डी ने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए, जिसमें वह काफी कम अन्तर से हारे, लोक सभा के अध्यक्ष पद से त्याग पत्र दे दिया। स्वेच्छा से राजनीति से बाहर रहने के कुछ समय पश्चात्, रेड्डी पुनः छठी लोक सभा के लिए चुने गए। 26 मार्च, 1977 को उन्हें सर्वसम्मति से छठी लोक सभा का अध्यक्ष चुन लिया गया। तथापि, इस बार भी वह अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके और चार महीने के पश्चात् उन्होंने भारत के राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन पत्र भरने के लिए इस उच्च पद से पुनः त्यागपत्र दे दिया।

रेड्डी 25 जुलाई, 1977 को भारत के राष्ट्रपति निर्वाचित किये जाने पर गौरव के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गये। राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने महत्वपूर्ण मुद्दों पर अनेक ऐतिहासिक निर्णय लिये।

सार्वजनिक जीवन में अपने लम्बे अनुभव और देश में सभी वर्गों के नेताओं के साथ अपने निकट संबंधों के कारण राष्ट्रपति रेड्डी देश के भाग्य को, इसके इतिहास को एक नाजुक मोड़ के समय, सवार कर आगे ले जा सके। उनका दूरदर्शी नेतृत्व, मिलनसारिता और उपलब्धता ने उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों का परम प्रिय बना दिया। उन्होंने अपनी व्यावहारिकता, आदर्शवादिता और देशभक्ति के द्वारा इस देश के सर्वोच्च पद के लिए विशिष्ट छाप छोड़ी जो अन्यथा कम ही मिलती है। विश्व अग्रनेता के रूप में रेड्डी ने देश के दृष्टिकोण को अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर सर्वोच्च उत्कृष्टता में व्यक्त किया।

कार्यकाल समाप्त करने के पश्चात् रेड्डी अपने गृह नगर अनन्तपुर में निजी जीवन व्यतीत करने लगे।

नीलम संजीव रेड्डी का निधन 83 वर्ष की आयु में जून, 1996 में उनके पैतृक स्थान में हुआ था।

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