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एम. अनन्तशयनम् अय्यंगार

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लोक सभा के प्रथम अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर के आकस्मिक निधन से पैदा हुई रिक्तता को भरने के लिए अध्यक्ष पद का दायित्व ग्रहण करके मदभूषी अनन्तशयनम् अय्यंगार ने स्वतंत्रता की लब्धियों को समेकित करने तथा नव गणतंत्र में स्वस्थ संसदीय संस्कृति विकसित करने के अधूरे कार्य को आगे बढ़ाने के लिए अपने आपको सर्वोपयुक्त सिद्ध किया। अय्यंगार ने छह दशक के अपने सार्वजनिक जीवन में, एक वकील, सामाजिक कार्यकर्त्ता तथा स्वतंत्रता सेनानी के रूप में, उत्कृष्ट सांसद तथा लोक सभा अध्यक्ष और एक प्रतिष्ठित विद्वान के रूप में, जीवन में जिस भी कार्यक्षेत्र को चुना उसमें अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ी।

मदभूषी अनन्तशयनम् अय्यंगार का जन्म 4 फरवरी, 1891 को आंध्र प्रदेश की आध्यात्मिक नगरी तिरूपति के निकट तिरूचाणुर में हुआ था। देवस्थानम हाई स्कूल, तिरूपति में अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात् अय्यंगार उच्च शिक्षा के लिए मद्रास चले गए। पचयप्पाज कालेज, मद्रास से कला स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने 1913 में मद्रास लॉ कालेज से कानून में डिग्री प्राप्त की।

अय्यंगार ने अपना जीवन गणित के अध्यापक के रूप में 1912 में आरंभ किया। 1915 में वे कानून के पेशे में आ गए। कुछ ही समय में वह एक पेशेवर वकील के रूप में स्थापित हो गए क्योंकि उनमें न्यायिक निर्णयों को याद रखने की अद्भुत क्षमता थी और जल्दी ही वे "निर्णयजन्य विधि के चलते-फिरते सारसंग्रह" के रूप में प्रख्यात हो गए। अय्यंगार इस व्यवसाय को मात्र जीविकोपार्जन का साधन नहीं मानते थे। उनकी इस बात में गहरी रुचि थी कि भारत की न्यायिक व्यवस्था में भारतीय जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप सुधार किए जाएं, और यह मात्र अंग्रेजी न्यायिक प्रणाली की एक शाखा बन कर न रह जाए। अतः उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता की जमकर वकालत की तथा भारत सरकार से फेडरल न्यायालय के स्तर को बढ़ाकर इसे उच्चतम न्यायालय का दर्जा देने की मांग की। भारतीय न्यायिक प्रणाली में अंतिम अपील का प्राधिकार इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल में निहित होने के कारण भारतीयों को जो कठिनाइयाँ पेश आती थीं और जिस प्रकार तिरस्कार सहना पड़ता था, उसके बारे में वह बहुत चिंतित थे। अय्यंगार एक सक्रिय वकील थे और अपने गृह नगर चित्तूर की बार एसोसिएशन के अध्यक्ष भी थे।

अय्यंगार बहुत छोटी उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे। वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व कर रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अपने गृह राज्य के प्रमुख नेताओं में से एक थे। गांधी जी द्वारा अंग्रेजी के प्रति ""असहयोग"" के लिए किए गए आह्वान के प्रत्युत्तर में अय्यंगार ने 1921-22 के दौरान एक वर्ष के लिए अपनी कानूनी प्रैक्टिस भी बंद कर दी।

1934 में जब कांग्रेस ने काउंसिलों के बहिष्कार की अपनी नीति वापस ली और सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली के चुनाव लड़ने का निर्णय लिया तो अय्यंगार भारी बहुमत से असेम्बली के सदस्य निर्वाचित हुए। चुनाव लड़ने के पीछे कांग्रेस का उद्देश्य यही था कि सरकार में रहकर सरकार से संघर्ष किया जाए। तथ्यों और आंकड़ों के पूर्ण जानकार और स्वाभावित रूप से वाद-विवाद में निपुण होने के कारण अय्यंगार ने जल्द ही केन्द्रीय विधान सभा में एक सशक्त वाद-विवादकर्ता सदस्य के रूप में अपनी छवि बना ली। वे पिछली कतार से अगली कतार में आ गए और फिर एक समय ऐसा भी आया कि ऐसा कोई दिन नहीं होता था जब वे सभा में सरकार के विरुद्ध कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन के हित में कोई जबरदस्त बात न कहते हों। सभा में अय्यंगार की इस उल्लेखनीय कार्यशैली से प्रभावित होकर एक यूरोपीय लेखक ने उनका जिक्र ""सभा के एम्डेन"" के रूप में किया था। ""एम्डेन"" जर्मनी की एक पनडुब्बी का नाम था, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभिक दिनों में मित्र देशों की नौसेना की भारी क्षति की थी।

1940 और 1944 के बीच, अय्यंगार को पहले ""व्यक्तिगत सत्याग्रह अभियान"" में और बाद में 1942 के ""भारत छोड़ो आंदोलन"" में भाग लेने के लिए लगभग तीन वर्ष के लिए कारावास की सजा भोगनी पड़ी।

अय्यंगार ने देश के राजनीतिक स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के अलावा समाज के दलित वर्गों के सामाजिक स्वातंत्र्य के लिए किए गए कई अन्य क्रियाकलापों में योगदान दिया। अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों से लड़ने के लिए गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों से प्रेरित होकर अय्यंगार मंदिर में हरिजनों का प्रवेश और अपने गृह राज्य में अस्पृश्यता का उन्मूलन सुनिश्चित करने के लिए आरंभ किए गए इस तरह के आंदोलनों में सबसे आगे रहे। अय्यंगार ने बाद में, हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष की हैसियत से हरिजनों के आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए।

उन्होंने सहकारी आंदोलन और चित्तूर में स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के क्रियाकलापों में भी गहरी रुचि दिखाई। वास्तव में उनका किसी प्रतिनिधि संस्था में प्रवेश चित्तूर की नगरपालिका परिषद से शुरू हुआ था जिसके लिए वे अपने राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दिनों में एक बार निर्वाचित किए गए थे। तत्पश्चात्, वे सहकारी जिला बैंक, चित्तूर के निदेशक निर्वाचित किए गए।

अय्यंगार, आंध्र प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के अग्रणी नेताओं में से थे और स्वतंत्रता से पूर्व उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया। वे जिला कांग्रेस कमेटी, चित्तूर के अध्यक्ष रहे। बाद में, उन्हें आंध्र प्रांतीय कांग्रेस कमेटी और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के लिए निर्वाचित किया गया। 1946-47 के दौरान, वे संसद में कांग्रेस पार्टी के सचिव भी रहे।

अय्यंगार ने संविधान सभा के सदस्य के रूप में भी कार्य किया। संविधान सभा के संविधान निर्माण संबंधी कृत्य को इसके विधायी कृत्य से अलग करने के निर्णय के परिणामस्वरूप और बाद में जी.वी. मावलंकर के संविधान सभा (विधायी) के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित किए जाने पर, अय्यंगार को इसके उपाध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित किया गया, वे संविधान सभा की संचालन समिति के भी सदस्य रहे। 1950-52 के दौरान अय्यंगार अंतरिम संसद के उपाध्यक्ष बने रहे। जब अंतरिम संसद द्वारा 1950 में पहली बार प्राक्कलन समिति का गठन किया गया तो, अय्यंगार इसके सभापति निर्वाचित किए गए। उन्होंने दक्षता से इसकी बैठकों का संचालन किया और इस समिति के लिए नाम कमाया।

1952 में जब पहली लोक सभा का गठन हुआ तो अय्यंगार इसके उपाध्यक्ष पद के लिए सर्वसम्मति से निर्वाचित हुए। उपाध्यक्ष के रूप में अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए, अय्यंगार ने दो वर्षों के लिए लोक सभा की प्राक्कलन समिति के सभापति और अगले दो वर्षों के लिए रेल अभिसमय समिति के सभापति पद का अतिरिक्त दायित्व भी संभाला। यह दायित्व उन्होंने तब तक संभाला जब तक कि वह अध्यक्ष मावलंकर के अचानक निधन के पश्चात् 8 मई, 1956 को सर्वसम्मति से लोक सभा के अध्यक्ष निर्वाचित नहीं किए गए।

इस तरह से, लोक सभा के अध्यक्ष का सर्वोच्च पद धारण करना उनके उस विधायी जीवन का चरमोत्कर्ष था जो 1934 में केन्द्रीय विधान सभा से शुरू हुआ था। उस समय तक अय्यंगार पहले ही अपने आपको लम्बे अनुभव और संसदीय संस्थाओं के कार्यकरण और उनकी प्रक्रिया और कार्य संचालन के ज्ञान से एक मुखर और प्रभावशाली सांसद सिद्ध कर चुके थे। वह संसदीय मूल्यों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध थे। वे अत्यधिक विनोदी स्वभाव के थे और विनोदप्रियता से वे न केवल संसदीय कार्यवाही को जीवंत बना देते थे, अपितु उनका यह स्वभाव कई बार उन्हें अपनी बात और अधिक प्रभावशाली और रोचक ढंग से संसद में रखने में मदद करता था।

प्रथम लोक सभा के अध्यक्ष के रूप में अपने संक्षिप्त कार्यकाल के दौरान अय्यंगार ने स्वयं को पूर्व अध्यक्ष मावलंकर द्वारा स्थापित संसदीय जीवन की उच्च परम्पराओं का योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध किया था। आरंभ से ही अय्यंगार भारत की संसदीय प्रणाली में पहले से ही शामिल की गई परम्पराओं और प्रथाओं को बनाए रखने तथा उन्हें मजबूत करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहे। अपने निष्पक्ष व्यवहार के कारण वह सभा के सभी पक्षों के प्रिय बन गए थे। यद्यपि आधिकारिक तौर पर सभा में विपक्ष का कोई नेता नहीं था, फिर भी अय्यंगार ने विपक्ष के बड़े नेताओं को वही सम्मान और आदर दिया जिसके वे हकदार थे और हमेशा सरकार तथा विपक्ष में संतुलन बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहे। जब 1957 में दूसरी लोक सभा का गठन हुआ तब एक बार पुनः अय्यंगार अगले पांच वर्षों के लिए अध्यक्ष पद के लिए सभा की सर्वसम्मत पसंद बने।

अध्यक्ष के रूप में अय्यंगार ने जो असंख्य विनिर्णय और टिप्पणियाँ दीं, वे स्पष्ट रूप से उनके राजनीतिक दर्शन, विधिक-कुशाग्रता, संसदीय प्रक्रियाओं में उनकी निपुणता और उनके प्रति सम्मान की भावना, प्रशासन की गतिशील शक्तियों की समझ और देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं और हितों की पहचान को दर्शाती है। उनके सामने जो प्रश्न उठाए गए, उन पर उन्होंने संक्षिप्त और स्पष्ट विनिर्णय दिए। उन्हें ऐसे अनेक विनिर्णयों और निदेशों का श्रेय जाता है, जिनके द्वारा भारतीय गणतंत्र के शैशव-काल के वर्षों में अनेक जटिल संसदीय मुद्दों को सुलझाया गया।

स्थगन-प्रस्तावों, विधेयकों, संकल्पों, स्थायी-समितियों, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव इत्यादि पर अय्यंगार की टिप्पणियां आज भारत में सुस्थापित संसदीय पद्धतियों और प्रक्रियाओं के विशाल संग्रह का एक अभिन्न अंग हैं। प्रश्नों के विषय, गणपूर्ति और जब सभा का सत्र चल रहा हो तो उस समय सभा से बाहर मंत्रियों द्वारा दिए गए वक्तव्यों पर इनके विनिर्णय निर्धारक रहे हैं। अय्यंगार ने यह स्पष्ट विनिर्णय दिया है कि सभा के प्रति शिष्टाचार स्वरूप किसी नीति अथवा नीति-परिवर्तन अथवा नई नीति की घोषणाओं की जानकारी सत्रकाल के दौरान पहले सभा के नोटिस में लाई जानी चाहिए। वह उन मुद्दों पर सदस्यों से कड़ाई से पेश आते थे जिनका सभा की गरिमा अथवा अध्यक्ष पीठ के सम्मान पर प्रभाव पड़ता हो।

विश्व की अन्य संसदों के साथ भारतीय संसद के संबंधों पर भी अय्यंगार ने विशेष ध्यान दिया। उन्होंने अन्य देशों को और अंतर्राष्ट्रीय संसदीय संघों के सम्मेलनों में गये कई संसदीय प्रतिनिधमण्डलों का नेतृत्व किया। वह 1960 में टोक्यो में हुए 49 वें अन्तर-संसदीय सम्मेलन में गये भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल के नेता थे। इन्होंने भारत में विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलनों में भी गहन रूचि ली। उन्हें इन सम्मेलनों में भारतीय विधान मंडलों के लिए समान पद्धति और प्रक्रिया विकसित करने और सामान्य संसदीय हित के मामलों पर विचार-विमर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ।

अय्यंगार एक सक्रिय सांसद रहे तथा वे बाद के वर्षों में सक्रिय राजनैतिक जीवन से संन्यास लेने के बाद भी कई सामाजिक-सांस्कृतिक और शैक्षिक संगठनों से जुड़े रहे। इन संगठनों में हरिजन सेवक संघ, राम विलास सभा, ड्रामेटिक एसोसिएशन ऑफ चित्तूर, दि कंस्टीटय़ूशन क्लब तथा इडियन एसोसिएशन ऑफ वर्ल्ड फेडरल गवर्नमेंट शामिल हैं।

1962 के आम चुनावों में अय्यंगार तीसरी बार लोक सभा के लिए चुने गये। तथापि, उन्होंने बिहार के राज्यपाल के रूप में चुने जाने के तत्काल पश्चात् ही अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इस तरह उनके लगभग तीन दशक लम्बे उत्कृष्ट संसदीय कार्यकाल का अंत हुआ। नःसंदेह, इस लम्बे सेवा काल के माध्यम से एक संस्था के रूप में संसद और सामान्यतः सम्पूर्ण देश अय्यंगार के ज्ञान, उनकी संसदीय निपुणता और राजनीति, धर्म और राष्ट्रीय समस्यओं के बारे में उनके व्यापक दृष्टिकोण से अत्यधिक लाभान्वित हुए।

1962 में अध्यक्ष पद छोड़ने पर अय्यंगार की उसी प्रकार प्रशंसा की गयी जिस प्रकार 1956 में श्री दादा साहेब मावलंकर की की गयी थी। इन्हीं दोनों प्रतिष्ठित अध्यक्षों के कारण भारत में एक मजबूत और स्वस्थ संसदीय संस्कृति की नींव डाली जा सकी। भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं, संसदीय संस्थाओं के प्रति उनकी पूरी प्रतिबद्धता, सभा की गरिमा को बनाए रखने में उनकी सतर्कता, सदस्यों की प्रतिष्ठा और संसदीय लोकतंत्र के मूल्यों तथा स्वस्थ संसदीय प्रक्रियाओं और परिपाटियों को विकसित करने में उनके अथक प्रयासों के लिए उनकी ऋणी हैं।

संसदीय जीवन के बाद अय्यंगार का सबसे बड़ा योगदान शायद शिक्षा के क्षेत्र में था। अय्यंगर एक विद्वान मनीषी थे जो भारत विद्या (इंडोलॉजी) तुलनात्मक धर्म, दर्शन, संस्कृत, संस्कृत साहित्य और अन्य विविध विषयों के प्रकांड पंडित थे। अपने सम्पूर्ण जीवन में उन्होंने संस्कृत और भारतीय संस्कृति के अध्ययन और प्रचार-प्रसार में बहुत रुचि ली। उन्होंने कुछ समय तक केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य के रूप में कार्य किया और बाद में वे ऋषिकुल विश्वविद्यालय, हरिद्वार के उपकुलपति रहे। शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए श्री वैष्णव थियोलॉजिकल विश्वविद्यालय, वृन्दावन ने 1954 में उन्हें डाक्टरेट ऑफ लिटरेचर (साहित्य वाचस्पति) की मानद उपाधि से सम्मानित किया। एक तेलुगू साप्ताहिक पत्रिका श्री वेंकटेश पत्रिका के नियमित सम्पादन के अलावा अय्यंगार ने भारतीय संसद पर ""अवर पार्लियामेंट"" (हमारी संसद) नामक पुस्तक भी लिखी थी।

अय्यंगार मानव जाति की मूलभूत एकता में विश्वास करते थे और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर और देश में धार्मिक एकता के समर्थक थे। उन्हें धार्मिक उन्माद फैलाने और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म का दुरुपयोग करने वालों से बहुत पीड़ा होती थी। उनका विश्वास था कि लोगों को साप्रदायिकता के खतरों के बारे में संवेदनशील बनाने का सर्वोत्तम तरीका सभी धर्मों के सही सारतत्व के बारे में जन-जागृति लाना है। उनका विचार था कि धर्मों का विकास मुख्यतः व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के मतभेदों को दूर करने में सहायता करने तथा व्यक्ति में भ्रातृत्व की भावना अन्तर्निविष्ट करने और उसके द्वारा उसका उत्थान करने के लिए किया गया है।

इसी तरह देश में व्याप्त अनिष्टकारी जाति-व्यवस्था के बारे में भी उनके विचार महत्वूपर्ण थे। अय्यंगार उन राष्ट्रीय नेताओं में से थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सबसे पहले अस्पृश्यता और जाति-व्यवस्था की बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष में भाग लिया था। उनका विश्वास था कि ऐतिहासिक दृष्टि से जाति-व्यवस्था भारतीय सामाजिक संरचना का मूल अंग नहीं थी अपितु इस व्यवस्था को इसमें बाद में शामिल किया गया। अय्यंगार के अनुसार उच्च जाति या निम्न जाति जैसी कोई चीज नहीं, अपितु केवल चेतना की उच्चतर स्थिति या चेतना की निम्नतर स्थिति होती है। इन दोनों स्थितियों का जन्म से कुछ लेना-देना नहीं है। उनका विश्वास था कि जन्म के आधार पर किसी व्यक्ति को उसके पूजा के अधिकार से वंचित करना स्वयं ईश्वरत्व के विरुद्ध अपराध है। इसी विश्वास ने उन्हें हिंदू मंदिरों में दलितों के प्रवेश के अधिकार का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वे हरिजनों के उत्थान के लिए संधर्ष करने वाले अग्रणी नेताओं में से एक थे।

बिहार के राज्यपाल के रूप में, एक पूरे कार्यकाल तक सेवा करने के पश्चात् अय्यंगार ने सक्रिय राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लिया और अपने जीवन के अंतिम वर्ष बिताने के लिए अपने गृहनगर तिरूपति चले गए। इस अवस्था में भी अय्यंगार बहुत सक्रिय रहे। 19 मार्च, 1978 को 87 वर्ष की आयु में अनन्तशयनम अय्यंगार का निधन हो गया। वह अंतिम समय तक तिरूपति में संस्कृत विद्यापीठ और अनेक धर्मार्थ संगठनों के कार्यों में व्यस्त रहे।

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