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जी.एम.सी. बालायोगी

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श्री गन्ती मोहन चन्द्र बालायोगी को बारहवीं लोक सभा का अध्यक्ष निर्वाचित होने और सर्वसम्मति से तेरहवीं लोक सभा का अध्यक्ष पुनः निर्वाचित होने का सम्मान प्राप्त है। एक अध्यक्ष के रूप में उन्होंने न केवल इस उच्च पद की प्रतिष्ठा और गरिमा को बनाए रखने में बल्कि देश में संसदीय संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने में भी एक महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे अपनी लोकप्रियता के शिखर पर ही थे जब काल के क्रूर हाथों ने 3 मार्च, 2002 को उन्हें हमसे छीन लिया। उनके निधन से देश ने एक युवा और सक्रिय सांसद खो दिया।

बालायोगी का जन्म पूर्वी गोदावरी जिला, आध्र प्रदेश के कोनासीमा क्षेत्र में गौरवमयी तथा विशाल गोदावरी नदी के किनारे बसे येदुरूलंका नामक एक छोटे से गांव के एक किसान परिवार से संबंधित श्री गन्निय्या तथा श्रीमती सत्यम्मा के यहाँ 1 अक्तूबर, 1951 को हुआ था। तीन भाई-बहनों में उनसे बड़ी एक बहन तथा एक छोटा भाई है।

बालायोगी ने अपने गांव में विद्यालय नहीं होने के कारण गुत्तेनाडिवी गांव से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने काकीनाडा से स्नातक तथा आंध्र विश्वविद्यालय, विशाखापत्तनम से स्नातकोत्तर एवं विधि की डिग्रियां प्राप्त कीं।

बालायोगी ने अपने विधिक जीवन की शुरूआत श्री गोपालास्वामी शेट्टी के मार्गदर्शन में 1980 में काकीनाडा में अधिवक्ता के रूप में की। वर्ष 1985 में उनका चयन प्रथम श्रेणी के दण्डाधिकारी के रूप में हुआ। किन्तु उन्होंने सेवा से त्यागपत्र दे दिया तथा काकीनाडा में वकालत करने वापस लौट आए। इसी दौरान वर्ष 1982 में आंध्र प्रदेश में "एनटीआर की लहर " आयी जब लोकप्रिय सिने नायक एन.टी. रामाराव ने राजनीति में प्रवेश किया तथा तेलुगू देशम पार्टी का गठन किया। उस समय कई शिक्षित और युवा आंध्रवासी उस लहर में सम्मिलित हुए और बालायोगी भी नवगठित पार्टी के कार्यकर्त्ता के रूप में शामिल हुए। उन्हें राजनीतिक मान्यता और जिम्मेदारी उस समय शीघ्र ही प्राप्त हुई जब उन्होंने 1986 में काकीनाडा के सहकारी टाउन बैंक के उपाध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया। वे वर्ष 1987 में पूर्वी गोदावरी जिला प्रजा परिषद के चेयरमैन निर्वाचित किये गये और वे 1991 में इसी पद पर तब तक बने रहे जब तक कि इसी वर्ष राजनीतिक भाग्य ने उन्हें उच्च पद पर नहीं पहुंचा दिया।

बालायोगी ने एक सांसद के तौर पर अपना जीवन तब आरंभ किया जब 1991 में वे तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के टिकट पर अमालापुरम निर्वाचन क्षेत्र से दसवीं लोक सभा के लिए पहली बार निर्वाचित हुए। पहली बार लोक सभा का सदस्य बनने पर बालायोगी ने सभा के नियमों एवं प्रक्रियाओं को समझने में गहरी रूचि ली तथा सभा की कार्यवाही में भी भाग लिया।

वर्ष 1996 के आम चुनाव में बालायोगी इस सीट से हार गए। तथापि इस पराजय ने उनकी हिम्मत नहीं तोड़ी और उन्होंने लोगों की सेवा करने के दृढ़ निश्चय एवं अति उत्साह के साथ काम करना जारी रखा। वे शीघ्र ही मुम्मिदिवरम विधान सभा क्षेत्र के उपचुनाव में आंध्र प्रदेश विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। उसके बाद उन्हें आंध्र प्रदेश सरकार में उच्चतर शिक्षा मंत्री नियुक्त किया गया। एक मंत्री के रूप में उन्होंने शिक्षा प्रणाली को मजबूत करने और उसे युक्तिसंगत बनाने के लिए ईमानदारी से प्रयास किये। उनका विश्वास था कि रोजगार के संदर्भ में शिक्षा और प्रशिक्षण की भूमिका और उसके उत्तरदायित्व की सावधानीपूर्वक परिभाषा की जानी चाहिए। उनका यह विचार भी था कि शिक्षा शिक्षित व्यक्ति के सामाजिक कार्यों और आर्थिक भूमिकाओं के अनुरूप होनी चाहिए।

बालायोगी ने लोक सभा सदस्य अथवा विधान सभा सदस्य अथवा एक मंत्री या जिला प्रजा परिषद के चेयरमैन के रूप में जो भी पद धारण किया, उन्होंने अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन दक्षतापूर्वक और सहजभाव से किया। उनका यह मानना था कि सार्वजनिक जीवन जीने वाले लोगों पर आचार संबंधी मानदंडों और नैतिक मूल्यों को बनाए रखने की विशेष जिम्मेदारी होती है। उन्होंने अपने इस वक्तव्य पर कायम रहते हुए राज्य में इन्टरमीडिएट की परीक्षाओं में प्रश्न-पत्रों के लीक होने संबंधी कथित विवाद की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए आंध्र प्रदेश के उच्चतर शिक्षा मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया था। यह एक ऐसा निर्णय था, जिसकी सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी बनाए रखने के एक उदाहरण के रूप में व्यापक सराहना की गई। लेकिन मुख्यमंत्री को उनकी ईमानदारी पर लेशमात्र का भी संदेह नहीं था अतः उन्होंने उनका त्यागपत्र अस्वीकार कर दिया और बालायोगी को उनके पद पर बने रहने के लिए कहा गया।

सौम्य और मृदुभाषी व्यक्तित्व के धनी बालायोगी जी एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें स्वयं को लोगों के बीच पाकर बहुत प्रसन्नता होती थी। छोटे और बड़े समारोहों में जाने के लिए सदैव तैयार रहने की उनकी इच्छा से इस बात का पता आसानी से चल जाता है। वे ऊर्जा से लबरेज थे, यही कारण था कि वे पूरे दिन काम करने के बावजूद भी एकदम तरोताजा बने रहते थे। लोगों के साथ जुड़े रहने की उनकी इच्छा के कारण ही उनके आंध्र प्रदेश के कोनासीमा क्षेत्र के विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों और क्रियाकलापों से घनिष्ठ संबंध थे।

अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत से ही, बालायोगी जी ने कठोर परिश्रम किया और सदैव जनता की सेवा की। अपने गृह राज्य आंध्र प्रदेश में, जहाँ प्रायः प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप होता रहता है, उन्होंने गरीबों और तूफान से प्रभावित लोगों के लिए अनेक बार राहत और चिकित्सा शिविरों का आयोजन किया। उन्होंने हमेशा गांवों में पेयजल की समस्या का समाधान करने, संचार एवं यातायात सुविधाओं में सुधार करने तथा शिक्षकों और मृत सरकारी कर्मचारियों के विधिक उत्तराधिकारियों को रोजगार दिलाने के प्रयासों में सहायता की। वे निर्धन और पद दलित लोगों के उत्थान के प्रति सदैव समर्पित रहे और उन्होंने ग्रामीण विकास विशेषकर कोनासीमा के विकास में गहरी रूचि ली, लोगों ने भी उनके इन कार्यों को मान्यता दी और उनके एक नेता के रूप में उभरने में अहम योगदान दिया। उन्होंने पूर्व गोदावरी जिला प्रजा परिषद के अध्यक्ष रहते हुए जमीनी स्तर पर अपने राजनीतिक दर्शन की सशक्त बुनियाद रखी और जिला पंचायत के मुखिया (हैड) के रूप में अपने पांच वर्ष के कार्यकाल के दौरान विभिन्न क्रिया-कलापों तथा कार्यक्रमों के माध्यम से स्वयं को लोगों के प्रति समर्पित किया।

बालायोगी ने 1998 के आम चुनाव मे तेलुगूदेशम पार्टी के उम्मीदवार के रूप में अपने पुराने निर्वाचन क्षेत्र, अमालापुरम से चुनाव लड़ा और 90,000 मतों के भारी बहुमत से चुनाव जीतकर दूसरी बार लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए। उनकी किस्मत में राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा पद पाना लिखा था और सत्ताधारी गठबंधन के समर्थन से वे लोक सभा, अध्यक्ष के पद लिए एक सफल उम्मीदरवार के रूप में उभरकर सामने आए।

बालायोगी 24 मार्च, 1998 को देश के राजनैतिक इतिहास के अत्यंत नाजुक दौर में लोक सभा अध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद के लिए निर्वाचित हुए। तेलुगूदेशम पार्टी जिससे वे सम्बद्ध थे, गठबंधन सरकार का बाहर से समर्थन कर रही थी। उस समय किसी भी पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत नहीं होने के कारण सभा की संरचना बहुत जटिल थी और सभा में लगभग 40 राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि थे। सभा के वर्तमान स्वरूप में, जबकि सत्ताधारी गठबंधन एवं प्रतिपक्ष के लगभग बराकर सदस्य थे, अध्यक्ष बालायोगी ने, जो इस पद पर आसीन होने वाले आज तक के सबसे कम आयु के व्यक्ति थे, स्वयं को अत्यंत विषम स्थितियों में पाया। अध्यक्ष का पद संभालने पर इस परिदृश्य का विश्लेषण करते हुए उन्होंने टिप्पणी की कि हमारा देश सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है और इस परिवर्तन के अनुरूप पिछले कई वर्षों से सभा की संरचना में भी बदलाव आ रहा है। बालायोगी जी का दृढ़ विश्वास था कि विधायिका सामाजिक परिवर्तन का प्रभावी साधन है तथा सदस्यों को परिवर्तन की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने तथा देश के भावी निर्माण हेतु मार्ग-दर्शन करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है।

श्री बालायोगी विधानमण्डल सचिवालय की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए वल्लभभाई पटेल और जी.वी. मावलंकर जैसे अपने सुविख्यात पूर्ववर्तियों द्वारा किए गए कार्यों से भली-भाँति अवगत थे और उन्होंने सचिवालय के वरिष्ठतम अधिकारी को लोक सभा सचिवालय का महासचिव नियुक्त करने की समय की कसौटी पर खरी उतरी परंपरा को पुनः स्थापित करके सचिवालय की स्वायत्ता को बनाए रख कर बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। उन्होंने राजनीतिक दलों के नेताओं से परामर्श कर अपने निर्णयों के प्रति और राजनीतिक विभेदों से ऊपर उठकर स्पष्ट समर्थन प्राप्त कर दूरदर्शिता और परिपक्वता दर्शायी। अन्य अनेक पहलुओं की भाँति इसमें भी अध्यक्ष के रूप में बालायोगी की विरासत हमारे संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अनूठी विरासत है।

देश भर में होने वाले सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में संवैधानिक गणमान्य व्यक्तियों में अध्यक्ष की मांग सबसे अधिक होती है और वह इन कार्यक्रमों में सामान्यतः भाग लेता है और कृषि, संस्कृति, विकास, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, पर्यावरण, दर्शनशास्त्र, राजनीति, धर्म, अध्यात्मवाद, विज्ञान और प्रौद्योगिकी आदि जैसे विषयों पर श्रोताओं को संबोधित करता है अतएव उन्हें तमाम मुद्दों की समीचीन जानकारी होगी चाहिए क्योंकि जहां भी वे जाते हैं उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे जनता को संबोधित करें। इसके साथ ही उनपर अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र की देखभाल करने का दायित्व होता है जहां के लोगों ने चुनकर उन्हें सदन में भेजा है। यह एक अत्यन्त चुनौतीपूर्ण कार्य है जो पदस्थ व्यक्ति से बहुत सी अपेक्षायें करता है। जिनके चलते उनका जीवन अत्यंत व्यस्त हो जाता है। बालायोगी ने इन सभी दायित्वों को कुशलता से और उत्साहपूर्वक निभाया।

बालायोगी जब अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे तभी काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे छीन लिया। श्री बालायोगी का निधन 3 मार्च, 2002 को कैकालुर, पश्चिम गोदावरी जिला, आंध्र प्रदेश में हुई हेलीकाप्टर दुर्घटना में हुआ था।

4 मार्च, 2002 को लोक सभा के उपाध्यक्ष श्री पी.एम. सईद ने सभा में श्री बालायोगी के दुखद देहान्त पर निधन संबंधी उल्लेख प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि सभा के कार्य संचालन की व्यवस्था करने के लिए बालायोगी जी की शैली अनूठी और अत्यंत सराहनीय थी। उनकी कार्य संचालन शैली सामान्य बुद्धि और पूर्णतः स्पष्ट निष्पक्षता पर आधारित थी। वे सभा के भीतर और बाहर सभी दलों के साथ एक समान व्यवहार करते थे तथा उन्होंने किसी भी दल के साथ भेदभाव नहीं किया। उन्होंने संविधान का अक्षशः पालन करने के स्थान पर संविधान की मूल भावना को आगे रखते हुए अपनी बातें पुरजोर ढंग से रखीं।

पूरे सदन ने उपाध्यक्ष के साथ शोक संतप्त परिवार के प्रति हार्दिक सांत्वना व्यक्त की। तत्पश्चात् दिवंगत आत्मा की याद में और सम्मान में सदस्यों ने खड़े होकर मौन धारण किया।

उसी दिन राज्य सभा के सभापति श्री कृष्णकांत ने भी श्री बालायोगी की त्रासद और असमय मृत्यु का सभा में उल्लेख किया उसके बाद श्री बालायोगी के सम्मान में सदस्यों ने खड़े होकर मौन धारण किया। तत्पश्चात् दोनों सदनों की कार्रवाई तीन दिनों के लिए स्थगित कर दी गयी थी।

सुबह श्री बालायोगी का पार्थिव शरीर संसद भवन लाया गया जहां सैकड़ों गणमान्य व्यक्तियों ने दिवंगत नेता को श्रद्धांजलि अर्पित की।

श्री बालायोगी अपने पीछे अपनी पत्नी विजय कुमारी जो इस बीच अमलापुरम संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से लोक सभा की सदस्य के रूप में निर्वाचित हो चुकी हैं, तीन पुत्रियां और एक पुत्र छोड़ गए।

श्री बालायोगी सदन द्वारा उनमें व्यक्त किए गए विश्वास पर साहस दृढ़ धारणा, पूर्ण सक्रियता और विनम्रता के साथ पूरी तरह खरे उतरे। इस प्रकार वे अपने उन सुविख्यात पूर्ववर्तियों की श्रेणी में शामिल हो गए जिन्होंने अध्यक्ष पद को सुशोभित किया और अपने विविध योगदानों से संसदीय संस्था और परंपरा को सुदृढ़ किया।

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