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के.एस.हेगड़े

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छठी लोक सभा के अध्यक्ष के रूप में श्री कावदूर सदानन्द हेगड़े का चुनाव इस अर्थ में अभूतपूर्व था कि लोक सभा के सदस्य के रूप में अपने प्रथम कार्यकाल के दौरान ही उन्हें इस उच्च पद पर आसीन होने का अवसर प्राप्त हुआ। उनका व्यावसायिक जीवन भी अनूठा रहा है क्योंकि न्यायपालिका के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले वे राज्य सभा के सदस्य थे। उत्कृष्ट न्यायिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ विधायी अनुभव होने के कारण उन्होंने सभा की कार्यवाही का संचालन इतनी कुशलता से किया कि इसके लिए लोक सभा के सभी सदस्यों की ओर से उन्होंने प्रशंसा मिली। अपनी मान्यताओं पर दृढ़ रहते हुए उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान इस पद की गरिमा को कायम रखा।

कावदूर सदानन्द हेगड़े का जन्म 11 जून, 1909 को पूर्व मैसूर राज्य के जिला दक्षिण केनरा के कर्कला तालुका में स्थित कावदूर गांव में हुआ। उन्होंने कावदूर प्राथमिक विद्यालय ओर कर्कला बोर्ड हाई स्कूल से शिक्षा ग्रहण की। तदन्तर, उन्होंने सेंट एलूसिस कॉलेज, मंगलौर, प्रेजीडेंसी कॉलेज, मद्रास और लॉ कॉलेज, मद्रास से भी शिक्षा प्राप्त की। मुख्यतः एक कृषक होने के अलावा, हेगड़े को प्रचुर तथा विविध न्यायिक अनुभव भी था। उन्होंने 1933 में वकालत आरंभ की और 1947-51 के दौरान सरकारी वकील और लोक अभियोजक के रूप में कार्यरत रहे। वे कृषक समुदाय के पक्षधर थे और वह उनके हितों के समर्थन के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। सन् 1952 में हेगड़े कांग्रेस दल के प्रत्याशी के रूप में राज्य सभा के लिए निर्वाचित हुए थे। हेगड़े 1957 तक राज्य सभा के सदस्य रहे और इस दौरान उन्होंने सभी की चर्चाओं में उत्कृष्ट योगदान किया। वे सभापति तालिका के सदस्य, लोक लेखा समिति और नियम समिति के सदस्य भी रहे थे।

इस अवधि के दौरान, 1954 मे हेगड़े संयुक्त राष्ट्र महासभा के नौंवे सत्र में एक वैकल्पिक प्रतिनिधि के रूप में चुने गए और उन्होंने इसकी द्वितीय समिति में विशिष्टतापूर्वक कार्य किया। वे रेल भ्रष्टाचार जांच समिति तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के शासी निकाय के सदस्य भी रहे।

1957 में मैसूर उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने पर हेगड़े ने राज्य सभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। न्यायाधीश के रूप में उनके द्वारा दिए गए निर्णयों के लिए उन्हें भरपूर मान-सम्मान और प्रशंसा मिली। 1966 तक वे मैसूर उच्च न्यायालय की खंडपीठ में सेवारत रहे और तत्पश्चात् वे दिल्ली और हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के प्रथम मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हुए। हेगड़े न्यायाधीश के रूप में पहले से ही ख्याति प्राप्त कर चुके थे और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में उन्होंने कई ऐसे निर्णय दिए जो वास्तव में पथ-प्रदर्शक साबित हुए। 1967 में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया और इस पद पर रहते हुए भी उन्होंने व्यापक महत्व के अनेक निर्णय दिए।

वे एक ऐसे ईमानदार, विधि विशेषज्ञ और विद्वान न्यायाधीश के रूप में जाने जाते थे जिन्होंने किसी अन्य चीज की अपेक्षा वे सदैव विधिसम्मत शासन को वरीयता दी। जहां तक न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रश्न था वे न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप के सर्वथा विरुद्ध थे और कार्यपालिका के ऐसे प्रयासों के आलोचक थे। अद्वितीय ईमानदारी और परम सत्यनिष्ठा से ओत-प्रोत हेगड़े को विश्वास था कि कोई भ्रष्ट समाज एक न्यायोचित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण नहीं कर सकता तथा जब तक प्रशासन प्रभावी और ईमानदार नहीं होगा, एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना नहीं की जा सकती, भले ही इसके लिए कितना त्याग क्यों न किया जाए।

30 अप्रैल, 1973 को एक कनिष्ठ सहयोगी को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिए जाने के बाद हेगड़े ने सिद्धांतों के आधार पर अपना त्यागपत्र दे दिया।

इसके बाद हेगड़े ने एक बार फिर से सामाजिक और राजनैतिक आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेना प्रारंभ कर दिया। 1977 में वे जनता पार्टी के टिकट पर दक्षिण बंगलौर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से छठी लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए। तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष, डा. नीलम संजीव रेड्डी ने उन्हें विशेषाधिकार समिति का सभापति नियुक्त किया तथा वे 20 जुलाई, 1977 तक इस पद पर बने रहे।

डा. नीलम संजीव रेड्डी द्वारा भारत के राष्ट्रपति के पद का चुनाव लड़ने के लिए अपने पद से त्यागपत्र देने के पश्चात् हेगड़े 21 जुलाई, 1977 को लोक सभा के अध्यक्ष चुने गए। लोक सभा के समक्ष लोक सभा अध्यक्ष के पद हेतु हेगड़े के नाम का एक मात्र प्रस्ताव रखा गया था, जिसे सर्वसम्मति से पारित किया गया। यद्यपि हेगड़े प्रथम बार लोक सभा के सदस्य चुनकर आए थे, तथापि उनके लोक सभा अध्यक्ष निर्वाचित होने से उनकी महत्ता, योग्यता तथा सदन के सभी वर्गों में उनके स्वीकार्य होने के गुणों का पता चलता है।

अध्यक्ष हेगड़े विधिसम्मत शासन तथा निष्पक्षता में विश्वास रखते थे। संसद की सर्वोच्चता को बनाए रखना उनका सबसे बड़ा ध्येय था। उनका यह सतत् प्रयास रहा कि जहां तक संभव हो संसद की कार्यवाही में सभी सदस्यों को भाग लेने का अवसर मिले। उन्हें विश्वास था कि सदन को और अधिक प्रभावशाली बनाए जाने के लिए यह आवश्यक है कि सदस्य सदन में मर्यादा और शिष्टाचार बनाए रखें तथा ईमानदारी से नियमों का पालन करें। उन्होंने एक बार सभा में यह व्यवस्था दी थी कि अध्यक्ष के मना करने के बावजूद यदि कोई सदस्य अपनी बात कहने पर अड़ा रहे तो अध्यक्ष अपनी अन्तर्भूत शक्तियों के आधार पर यह निर्देश दे सकता है कि संबद्ध भाग को कार्यवाही में सम्मिलित न किया जाए।

हेगड़े ने प्रक्रिया तथा कार्य संचालन संबंधी नियमों की लगातार समीक्षा की जाने की आवश्यकता को महसूस किया ताकि उनको नई आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जा सके। तथापि, उनका यह भी विश्वास था कि इन नियमों में ऐसे संशोधन किए जाने चाहिए जिनसे ये राष्ट्र के हित में संसदीय समय का सदुपयोग करने में सहायक बन सकें।

अध्यक्ष हेगड़े विधान मंडलों के भीतर ही ऐसी उचित संस्थागत व्यवस्था कायम करने के पक्ष में थे जिससे सदस्यों की संसदीय आकांक्षाओं को पूरा करने में सहायता मिल सके। उनका यह भी विश्वास था कि नोटिस स्वीकार करने, किसी प्रस्ताव पर बहस के लिए सहमति देने तथा ऐसी अन्य परिस्थितियों में व्यापक लोकहित के मूल मानदंड को ध्यान में रखते हुए अध्यक्ष को लचीला रवैया अपनाना चाहिए।

अध्यक्ष के पद पर रहते हुए हेगड़े ने कई महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं दीं। 25 जुलाई, 1977 को एक अतारांकित प्रश्न के उत्तर में संबद्ध मंत्री महोदय ने कहा कि वे संबंधित दस्तावेज संसद के ग्रंथालय में रख रहे हैं ताकि सदस्य उस पर परामर्श कर सकें। बाद में एक सदस्य द्वारा 1 अगस्त, 1977 को नियम 377 के अधीन यह मामला उठाया गया। इस पर अध्यक्ष हेगड़े ने टिप्पणी की कि यदि कोई दस्तावेज सदस्यों के लाभ के लिए रखा जाना है तो उसे केवल संसद ग्रंथालय में रखने के बजाय संभा पटल पर रखा जाना चाहिए।

हेगड़े सदस्यों की प्रभावशीलता को बढ़ाने के उत्सुक थे ताकि वे अपेक्षित बहुआयामी भूमिका को वांछित तरीके से निभा सकें।

वे सदस्यों, विशेषकर नए सदस्यों को प्रभावकारी अनुसंधान एवं संदर्भ सेवा प्रदान किए जाने के पक्ष में थे ताकि सदस्य अपने प्रश्नों और प्रस्तावों को उचित तरीके से प्रस्तुत कर सकें तथा उन्हें तथ्यात्मक जानकारी व आंकड़े प्राप्त हो सकें, जिससे वाद-विवाद में उनकी भागीदारी प्रभावपूर्ण हो पाए। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने लोक सभा सदस्यों को व्यक्तिगत तौर पर पत्र लिखा जिसमें उन्हें ग्रंथालय, संदर्भ, अनुसंधान, प्रलेखन और सूचना सेवा का उपयोग करने के लिए आमंत्रित किया।

हेगड़े अंतर्राष्ट्रीय शांति और सहयोग में दृढ़ विश्वास रखते थे। इसलिए उन्होंने अंतर-संसदीय सहयोग को अत्यधिक महत्व दिया। उन्होंने तेईसवें, चौबीसवें और पच्चीसवें राष्ट्रमंडल संसदीय सम्मेलनों जो कि सितम्बर, 1977 में ओटावा (कनाडा) में, सितम्बर, 1978 में किंग्स्टन (जमैका) में और नवम्बर-दिसम्बर, 1979 में विलिंगटन (न्यूजीलैंड) में हुए थे, में भारतीय संसदीय प्रतिनिधि-मंडल का नेतृत्व किया था। उन्होंने सितम्बर, 1978 में बॉन (पूर्व संघीय जर्मन गणराज्य ) में हुए 65वें और सितम्बर, 1979 में काराकास (वेनेजुएला) में हुए छियासठवें अंतर संसदीय सम्मेलनों में भी भारतीय-संसदीय प्रतिनिधि मंडलों का नेतृत्व किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने "राष्ट्रमंडल संसदीय संघ ओर भविष्य" के संबंध में राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की उप-समिति को जनवरी, 1978 में लंदन में हुई बैठक तथा राष्ट्रमंडल अध्यक्षों और पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन की स्थायी समिति को जनवरी, 1978 में नसाऊ (बहामास) में हुई बैठक में भी भाग लिया था।

अध्यक्ष हेगड़े ने अगस्त-सितम्बर, 1978 में कैनबरा (अस्ट्रेलिया) में हुए राष्ट्रमंडल अध्यक्षों और पीठासीन अधिकारियों के पांचवें सम्मेलन में और मई, 1979 में पर्थ (आस्ट्रेलिया) में हुई राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की कार्यकारी समिति की बैठकों में भी एशिया के क्षेत्रीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। हेगड़े ने भारतीय संसदीय प्रतिनिधि मंडलों का जून, 1979 में रूमानिया, बल्गारिया और पोलैंड, में तथा जून-जुलाई, 1979 में पूर्व सोवियत संघ में भी नितृत्व किया था।

अध्ययनशील प्रकृति के व्यक्ति, श्री हेगड़े ने "क्राइसिस इन दि जुडिशियरी" और "डाइरेक्टिव प्रिंसिपल्स" नामक कुछ प्रसिद्ध पुस्तकें भी लिखीं।

लोक सभा अध्यक्ष के अपने अल्पकालीन कार्यकाल के दौरान हेगड़े ने न केवल अध्यक्ष के उच्च पद की गरिमा को बनाए रखने में बल्कि देश में संसदीय संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने में भी विशेष योगदान दिया।

कावदूर सदानन्द हेगड़े का 24 मई, 1990 को कर्नाटक में अपने जन्म स्थान पर 81 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

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