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सरदार हुकम सिंह

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सर्वसम्मति से तीसरी लोक सभा के निर्वाचित अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह ने सभा के नियमों, प्रक्रियाओं, प्रथाओं और परिपाटियों का अनुपालन करने तथा उन्हें लागू करने का प्रयास किया। कानून की उनकी पृष्ठभूमि और न्यायाधीश के रूप में उनका कार्य करना लोक सभा के उपाध्यक्ष और बाद में अध्यक्ष के रूप में उनके कार्यकाल में उपयोगी सिद्ध हुआ। वह विनम्र और मृदुभाषी किंतु निश्चय के पक्के और स्पष्टवादी व्यक्ति थे। उन्होंने अपने विचारों की स्पष्टता, निष्पक्षता और आकर्षक व्यक्तित्व के लिए व्यापक सराहना व सम्मान अर्जित किया। उन्होंने सभा का कार्य सुचारू और व्यवस्थित ढंग से चलाने का भरसक प्रयास किया और साथ ही साथ इस बात को भी सुनिश्चित किया कि सदस्यों को लोगों की शिकायतें दूर करने की उनकी भूमिका अदा करने का यथासंभव प्रत्येक अवसर प्राप्त हो।

हुकम सिंह का जन्म 30 अगस्त, 1895 को मोंटगुमरी, जो अब पाकिस्तान का भाग है, में हुआ था। गवर्नमेंट हाई स्कूल, कोंटगुमरी में अपनी मैट्रीक की शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात हुकम सिंह ने 1917 में खालसा कालेज, अमृतसर से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात, उन्होंने लॉ कालेज, लाहौर में कानून की पढ़ाई की और 1921 में उत्तीर्ण होने के पश्चात अपने गृह नगर मोंटगुमरी में वकालत आरंभ की। वह कई वर्षों तक मोंटगुमरी बार एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे।

हुकम सिंह ने शिरोमणि अकाली दल के माध्यम से राजनीति में पदार्पण किया और वह तीन वर्षों तक इसके अध्यक्ष रहे। वह मोंटगुमरी सिंह सभा के सदस्य भी थे और तीन वर्षों तक इसके अध्यक्ष रहे। हुकम सिंह को गुरूद्वारा सुधार आंदोलन के संबंध में 1924 में गिरफ्तार किया गया था और लगभग दो वर्ष के कारावास का दंड दिया गया।

देश के बंटवारे के समय हुकम सिंह अगस्त 1947 में शरणार्थी के रूप में भारत आ गए। तथापि, उनकी प्रतिभा को शीघ्र मान्यता मिली और उन्हें दिसम्बर, 1947 में राज्य उच्च न्यायालय, कपूरथला का कनिष्ठ न्यायाधीश नियुक्त किया गया। वह इस पद पर नवम्बर 1948 तक आसीन रहे।

हुकम सिंह को अकाली दल के सदस्य के रूप में अप्रैल, 1948 में भारत की संविधान सभा के लिए चुना गया। वह अंतरिम संसद (1950-52) के सदस्य भी रहे और बाद में अकाली पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हुए "पेप्सू" निर्वाचन क्षेत्र से 1952 में पहली लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए। तत्कालीन अध्यक्ष, श्री जी.वी. मावलंकर ने उन्हें सभापति तालिका में रखा। जब कभी उन्हें सभा चलाने का अवसर मिला, उन्होंने बहुत अच्छे ढंग से उसकी कार्यवाही का संचालन किया जिसकी सभी ने दलगत भावना से ऊपर उठकर प्रशंसा की। 20 मार्च, 1956 को हुकम सिंह को प्रतिपक्ष का सदस्य होते हुए भी सर्वसम्मति से लोक सभा का उपाध्यक्ष चुना गया। यह न केवल उनकी लोकप्रियता अपितु इस का भी सबूत था कि कुशलतापूर्वक और निष्पक्ष ढंग से सभा का संचालन करने की उनकी क्षमता के प्रति सदस्यों को उन पर पूर्ण विश्वास था।

हुकम सिंह 1957 में भटिंडा संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से दूसरी बार लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए। उन्हें 17 मई, 1957 को पुनः उपाध्यक्ष के रूप में चुना गया। उन्होंने विशेषाधिकार समिति, गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति, ग्रंथालय समिति और अधीनस्थ विधान संबंधी समिति के सभापति के रूप में भी काम किया।

वर्ष 1962 के आम चुनावों में हुकम सिंह तीसरी बार लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए। इस बार उन्हें कांग्रेस के टिकट पर पटियाला संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से चुना गया था। चूंकि उनकी विश्वसनीयता को परखा और पूर्ण रूप से पुष्ट किया जा चुका था, यह स्वाभाविक ही था कि हुकम सिंह को सर्वसम्मति से तीसरी लोक सभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया जाए। सभा की यह आम राय थी कि अध्यक्ष का पद हुकम सिंह के हाथों में सुरक्षित है जो निष्ठापूर्वक संसद की गरिमा और इसके सदस्यों के अधिकारों और विशेषाधिकारों की रक्षा कर सकते थे।

एक लोकतंत्रवादी होने के कारण हुकम सिंह का विश्वास था कि संसदीय प्रजातंत्र के समुचित कार्यकरण के लिए यह आवश्यक है कि सदस्यगण सदन में गरिमापूर्ण आचरण करें। वह यह भी अनिवार्य मानते थे कि संविधान में प्रदत्त भाषण की स्वतंत्रता के अधिकार का उचित उपयोग हो। अतः गलती करनेवाले सदस्यों को अनुशासित करने का उनका अपना ही तरीका था। उनका यह विचार था कि यदि कोई सदस्य अध्यक्ष की अनुमति के बिना ही बोलना शुरू कर देता है तो अध्यक्ष उस पर ध्यान नहीं देगा। यदि कोई सदस्य निरंतर यही रवैया अपनाता है तो भविष्य में भी अध्यक्ष उसकी बात पर ध्यान नहीं देगा। जिन मामलों में अति हो जाएगी, वहां अध्यक्ष रिपोर्टर को एक भाषणों को रिकार्ड करने से मना कर देगा। सभा के भीतर अनुशासन और मर्यादा बनाए रखने के लिए उनकी यही पक्की धारणा थी।

अध्यक्ष के रूप में हुकम सिंह सभा के सुचारू कार्यकरण को सुनिश्चित करने में नियमों और पंरपराओं के महत्व को समझते थे। वह प्रगतिशील विचारों वाले थे तथा सभा को और अधिक प्रभावशाली बनाने के तरीकों और प्रक्रियाओं की खोज में लगे रहते थे। जब तीसरी लोक सभा समवेत हुई तो उन्होंने यह सुझाव दिया कि जिस दिन राष्ट्रपति केंद्रीय कक्ष में संयुक्त रूप से एकत्र संसद की दोनों सभाओं के सदस्यों को संबोधित करें, उस दिन कोई भी स्थगन प्रस्ताव प्रस्तुत न करने की पंरपरा स्थापित की जाए। सभा ने सुझाव मान लिया तथा यह सहमति हुई कि यदि कोई स्थगन प्रस्ताव रखा भी जाता है तो उस पर अगले दिन विचार किया जाएगा। अध्यक्ष के रूप में हुकम सिंह इस बात के लिए भी प्रयासरत रहते थे कि जिस दिन ध्यानाकर्षण प्रस्ताव सभा पटल पर रखे जाएं, उसी दिन उनका निपटान कर दिया जाए।

हुकम सिंह कार्यपालिका पर विधानमंडल की श्रेष्ठता के कट्टर समर्थक थे। दिनांक 28 अप्रैल, 1965 को जब सत्रहवें संशोधन विधेयक पर विचार किए जानेसंबंधी चर्चा पूरी हुई तो उसके बाद मत विभाजन हुआ। संशोधन को सभा का बहुमत प्राप्त नहीं हुआ और इसलिए संविधान संशोधन का प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया। सरकार ने एक बार फिर मत विभाजन कराए जाने का अनुरोध किया परंतु अध्यक्ष हुकम सिंह ने यह मांग ठुकरा दी और कहा कि वह मत विभाजन में हस्तक्षेप नहीं कर सकते और सभा को उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा।

अध्यक्ष के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान लोक सभा के इतिहास में पहली बार अगस्त 1963 में मंत्रिपरिषद के विरूद्ध एक प्रस्ताव रखने की अनुमति दी गयी और उस पर चर्चा हुई। उनके अध्यक्ष पद पर रहने के दौरान विभिन्न मंत्रिपरिषदों के खिलाफ छः अविश्वास प्रस्ताव रखने की अनुमति दी गयी और उन पर चर्चा की गयी। इन सभी उत्तेजनापूर्ण वाद-विवादों में हुकम सिंह ने यह सुनिश्चित किया कि सभा में मर्यादा और अनुशासन बना रहे।

हुकम सिंह ने अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर हुए वाद-विवाद के समय सभा की अध्यक्षता की। भारत पर चीनी आक्रमण के परिणामस्वरूप पारित किए गए अनेक प्रमुख विधानों में से भारत का सुरक्षा अधिनियम भी एक था। ऐसे गंभीर मुद्दों पर चर्चा के समय जिस बढ़िया तरीके से उन्होंने सभा की कार्यवाही का संचालन किया, उसने अध्यक्ष के रूप में उनकी गरिमा को और बढ़ा दिया।

हुकम सिंह दोनों सभाओं की उस संसदीय समिति के भी सभापति थे, जिसे "पंजाबी सूबा" के मामले पर सद्भावना और तर्कसंगत दृष्टिकोण के आधार पर कोई समाधान ढूढने के लिए अक्तूबर, 1965 में गठित किया गया था।

अध्यक्ष के रूप में हुकम सिंह ने अक्तूबर-नवम्बर, 1962 में लागोस (नाईजीरिया) में तथा नवम्बर, 1963 में कुआलालम्पुर (मलेशिया) में हुए राष्ट्रमंडल संसदीय सम्मेलनों में भाग लेने गए संसदीय शिष्टमंडलों का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने सितंबर-अक्तूबर, 1962 में सोवियत संघ और मंगोलिया, अक्तूबर, 1964 में ब्रिटेन और पश्चिम जर्मनी तथा मई, 1965 में फिलीपींस की सदभावना यात्रा पर गए भारतीय संसदीय शिष्टमंडलों का भी प्रतिनिधित्व किया। अमरीकी सरकार के निमंत्रण पर हुकम सिंह ने जून, 1963 में उस देश के लिए गए एक संसदीय शिष्टमंडल का प्रतिनिधित्व भी किया।

हुकम सिंह ने वर्ष 1967 में हुए आम चुनावों में भाग नहीं लिया और 16 मार्च, 1967 को अध्यक्ष पद त्याग दिया। इसके पश्चात 15 अप्रैल, 1967 को उन्हें राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इस पद पर वह जून, 1972 तक कार्य करते रहे। राज्यपाल के रूप में भी उस पद की उच्च परंपरा को बनाए रखने के लिए उनकी सर्वत्र सराहना हुई।

हुकम सिंह राजनीति के साथ-साथ अन्य अनेक क्षेत्रों में भी अग्रणी थे। अपने कालेज के दिनों में वहएक जाने-माने खिलाड़ी थे तथा वर्ष 1914-16 के दौरान वह पंजाब विश्वविद्यालय की हॉकी टीम के सदस्य रहे। शिक्षा में भी उनकी गहन रूचि थी। वह वर्ष 1941 में और पुनः वर्ष 1943 से वर्ष 1945 तक खालसा हाई स्कूल, मोंटगुमरी के प्रबंधक रहे। वह एस जी टी बी खालसा कालेज, दिल्ली की गवर्निंग बॉडी के चेयरमैन थे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने अंग्रेजी और पंजाबी में कुछ पुस्तकें भी लिखी जैसे सिख केस, दि प्राबलम आफ सिक्खस, रशिया एज आइ सॉ इट और रशिया टुडे। वर्ष 1967 में उन्हें पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला द्वारा एल एल डी की मानद उपाधि प्रदान की गयी।

हुकम सिंह का 27 मई 1983 को 88 वर्ष की आयु में स्वर्गवास हो गया।

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