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बलराम जाखड़  

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डा. बलराम जाखड़ ने सातवीं लोक सभा के लिए अपने सर्वप्रथम निर्वाचन के तुरन्त बाद अध्यक्ष पद प्राप्त करके अपने संसदीय जीवन की शुरूआत करने का गौरव प्राप्त किया। उन्हें लगातार दो बार लोक सभा में पूर्ण अवधि के लिए सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने जाने का अनूठा सम्मान भी प्राप्त हुआ। कृषक से राजनीतिज्ञ बने बलराम जाखड़ ने इस महान पद की चुनौतियों का पूरी जीवंतता से मुकाबला किया और पूर्ण गरिमा, शालीनता और निष्पक्षता से सभा की कार्यवाही का संचालन किया। उन्होंने अपने दल में सक्रिय भूमिका निभाने तथा इसके जरिए देश के सामाजिक-राजनैतिक जीवन में सक्रिय बने रहने के लिए वर्ष 1989 में अध्यक्ष पद का त्याग कर दिया।

बलराम जाखड़ का जन्म 23 अगस्त, 1923 को पंजाब राज्य के फिरोजपुर जिले में पंजकोसी गांव में हुआ था। उनका शैक्षिक जीवन बहुत प्रतिभाशाली रहा। उन्होंने वर्ष 1945 में फॉरमेन क्रिश्चियन कालेज, लाहौर से संस्कृत ऑनर्स में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वह, वस्तुतः बहुभाषाविद् हैं और उन्हें अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और पंजाबी का गहन ज्ञान है। जाखड़ मूलतः एक कृषक और विशेष रूप से फलोद्यानी हैं। स्नातक स्तर तक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने अपने कृषि के पारिवारिक व्यवसाय को अपनाया तथा अपनी कृषि-भूमि पर फलों और अंगूरों के बागों के विकास के लिए आधुनिक तकनीकों का प्रयोग किया। अनेक वर्षों तक कठोर परिश्रम करके वह अरसे से बंजर पड़ी जमीनों को हरे-भरे चरागाहों तथा फलते-फूलते फलोद्यानों और अंगूरों के बागों में परिवर्तित करने में सफल हुए जिससे उनकी पैदावार कई गुणा बढ़ गई।

फल उगाने के क्षेत्र में जाखड़ की सेवाओं को राष्ट्रीय मान्यता तब प्राप्त हुई, जब वर्ष 1975 में उन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा "ऑल इंडिया उद्यान पंडित " की उपाधि प्रदान की गई। इसी वर्ष उन्हें वाशिंगटन में कृषि उत्पादकों के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने वाले कृषक शिष्टमंडल के नेतृत्व के लिए चुना गया। इसी अवधि के दौरान वह पंजाब सहकारी अंगूर उत्पादक महासंघ तथा राज्य के कृषक मंच के अध्यक्ष भी चुने गए। कृषि के क्षेत्र में उनके योगदान को मान्यता प्रदान करते हुए उन्हें हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार और गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार द्वारा क्रमशः "डाक्टर ऑफ साइंस " और "विद्या मार्तण्ड " की मानद उपाधियां प्रदान की गईं। कृषक समुदाय के बीच उनकी नेतृत्व की भूमिका ने ही अन्ततः श्री बलराम जाखड़ को राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय राजनीतिक भूमिका निभाने के लिए अग्रसर किया।

जाखड़ वर्ष 1972 में पंजाब विधान सभा के लिए निर्वाचित हुए और तब ही से उनका विधायी जीवन शुरू हुआ। विधान सभा के लिए उनके निर्वाचन के एक वर्ष के भीतर ही उन्हें सहकारिता, सिंचाई और विद्युत उपमंत्री के रूप में मंत्रिपरिषद में शामिल कर लिया गया। वह वर्ष 1977 तक मंत्री रहे। वर्ष 1977 में विधान सभा के लिए पुनः निर्वाचित होने पर उन्हें कांग्रेस (इ.) विधान मंडल पार्टी के नेता के रूप में चुन लिया गया और उस हैसियत से उन्हें पंजाब विधान सभा में विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। इस पद पर वह जनवरी 1980 में तब तक रहे जब उन्हें फिरोजपुर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से सातवीं लोक सभा के लिए चुना गया। इस दौरान, पंजाब के मामलों में एक राजनैतिक कार्यकर्ता, विधायक, मंत्री और विपक्ष के नेता के रूप में अपनी सक्रिय भूमिका के माध्यम से जाखड़ पहले ही अपने आप को एक दूरदर्शी और सक्षम प्रशासक सिद्ध कर चुके थे।

जाखड़ को 22 जनवरी, 1980 को सातवीं लोक सभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। यद्यपि जाखड़ को पीठासीन अधिकारी के रूप में पिछला कोई अनुभव नहीं था, तथापि उन्हें सौंपी गई नई भूमिका के बहुत बड़े उत्तरदायित्व से वह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए। अपने यथार्थपरक भूमिका-बोध, स्वयं में पूर्ण विश्वास और अपनी सहज सामान्य सूझ-बूझ के द्वारा जाखड़ सभा के पीठासीन अधिकारी के रूप में अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते रहे। उन्हें इस बात की पूरी जानकारी थी कि अध्यक्ष का पद उस लोक सभा के सुचारू और प्रभावी कार्यकरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिसमें विविध भाषा, संस्कृति, धर्म, क्षेत्र और सामाजिक-राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले सदस्य चुनकर आते हैं।

जाखड़ ने सभा का कार्य सदैव अत्यधिक गरिमा, शालीनता और निष्पक्षता से चलाने का प्रयास किया। दृढ़ निश्चयी, परन्तु साथ ही साथ सभी की मनः स्थिति के प्रति संवेदनशील रहते हुए उन्होंने सभा के सुचारू और व्यवस्थापूर्ण संचालन में सदस्यों के सहयोग पर तथा इसके जरिए देश में और देश से बाहर संसद की एक स्वस्थ छवि उभारने पर बल दिया। यद्यपि उन्होंने प्रक्रियाओं, नियमों, परम्पराओं और प्रथाओं को अत्यधिक महत्व दिया, लेकिन उन्होंने सभा की राय पर उन्हें हावी नहीं होने दिया। उन्होंने संसदीय लोकतंत्र में इस सामान्य नियम का समर्थन किया कि सदन अपनी स्वयं की प्रक्रियाओं के मामले में खुद ही सर्वे-सर्वा है।

जाखड़ ने सातवीं लोक सभा में सदन की कार्यवाही का जिस तरीके से संचालन किया, उसकी सर्वत्र सराहना की गई और वह सभा के सभी वर्गों के प्रिय बन गए। इसलिए, दिसम्बर, 1984 के आम चुनाव में उनके इस बार राजस्थान के सीकर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से लोक सभा के लिए पुनः निर्वाचित होने पर वह नई सभा की भी अध्यक्षता करने के लिए स्वाभाविक पसंद बने। 16 जनवरी, 1985 को उन्हें एक बार फिर सर्वसम्मति से आठवीं लोक सभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। दिसम्बर, 1989 में आठवीं लोक सभा का कार्यकाल पूरा होने पर जब जाखड़ ने अध्यक्ष पद का त्याग किया तो उन्हें स्वतंत्र भारत में लगातार दो बार लोक सभा की पूर्ण अवधि के लिए बने रहने वाले एक मात्र अध्यक्ष का अनूठा गौरव प्राप्त हुआ। यह अवधि (अर्थात् 22 जनवरी, 1980 से 18 दिसम्बर, 1989 तक) एक दशक से मात्र एक माह कम थी।

जाखड़ का सातवीं और आठवीं लोक सभा के अध्यक्ष के रूप में दस वर्ष का लम्बा कार्य-काल अनेक रूपों में अत्यंत महत्वपूर्ण था। कुल मिलाकर वह व्यक्तिगत रूप से सदस्यों के तथा सामूहिक रूप से सभा के अधिकारों और विशेषाधिकारों की रक्षा के प्रति सचेत रहे। उन्होंने एक बार यह व्यवस्था दी कि संसदीय समिति के समक्ष साक्ष्य देने वाले किसी भी सरकारी अधिकारी को सभा के विशेषाधिकारों का संरक्षण प्राप्त होगा। इसी प्रकार, यद्यपि उन्होंने लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका को सम्मान दिया, तथापि उन्होंने यह व्यवस्था भी दी कि सरकार के प्रत्येक अंग को संविधान द्वारा प्रदत्त सीमा में ही कार्य करना चाहिए, प्रत्येक को एक दूसरे के अधिकारों और विशेषाधिकारों का सम्मान करना चाहिए। तदनुसार, नवम्बर, 1987 में जाखड़ ने निर्णय दिया कि संसद के कार्यकरण के संबंध में अध्यक्षों से हुई कथित भूल-चूक के बारे में न्यायालय उन्हें अपने समक्ष स्वयं के बचाव हेतु उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है।

अध्यक्ष जाखड़ सभा के विशेषाधिकारों संबंधी सभी मामलों का दृढ़ निश्चय के साथ पक्षपोषण करते थे। संवैधानिक पदों की पवित्रता की रक्षा के लिए भी वे उसी प्रकार कृतसंकल्प रहे तथा श्री जाखड़ ने ऐसे पदों को संसद की चर्चा में घसीटने के हर प्रयास का विरोध किया।

अध्यक्ष के रूप में जाखड़ के कार्यकाल में लोक सभा में अनेक प्रक्रियात्मक नवीनताएं और पहल भी देखेने को मिलीं। सन् 1952 के बाद पहली बार, अध्यक्ष जाखड़ की पहल पर सन् 1989 में लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों की विस्तृत समीक्षा की गयी और मई, 1989 में उनमें अनेक परिवर्तन शामिल किये गये। उनके कार्यकाल के दौरान सन् 1985 में संसद द्वारा दल-बदल विरोधी कानून पारित किया गया जिसके अन्तर्गत सदस्यों को दल-बदल के आधार पर निरर्ह करने का उपबंध किया गया था। लोक सभा सदस्य (दल-बदल के आधार पर निरर्ह किया जाना) नियम, 1985 को 18 मार्च, 1986 से लागू किया गया।

भारतीय संसद में समिति प्रणाली को नया रूप देने में जाखड़ की पहल वास्तव में सराहनीय है। दसवीं लोक सभा के दौरान आरंभ की गई विभागों से संबद्ध स्थायी समिति की पूर्ण प्रणाली सातवीं और आठवीं लोक सभा के कार्यकाल के दौरान वर्षों के विचार-विमर्श के पश्चात् अगस्त-सितम्बर, 1989 में जाखड़ द्वारा मूलतः आरंभ की गई विषय आधारित समिति प्रणाली की ही प्रशाखा है। इसी प्रकार, संसद सदस्यों के लिए सेवाओं के कम्प्यूटरीकरण तथा स्वचालन प्रणाली की शुरूआत भी जाखड़ के अध्यक्ष रहते हुए ही हुई थी। उन्होंने सदस्यों के हित के लिए संसदीय ग्रंथालय और इसकी शोध, सन्दर्भ, प्रलेखन और सूचना सेवाओं के विस्तार में भी निरंतर गहन रूचि ली।

लोक सभा में जाखड़ नियम समिति, कार्य-मंत्रणा समिति और सामान्य प्रयोजनों संबंधी समिति के सभापति भी रहे। उन्होंने नई दिल्ली में संसद और राज्य विधान मण्डलों की एक जैसी विभिन्न समितियों के सभापतियों के आवधिक सम्मेलन आयोजित करने में अत्यधिक रूचि ली। इसमें एक दूसरे के अनुभव बांटने में सुविधा हुई और इसके फलस्वरूप देशभर में इन समितियों का अधिक प्रभावी और सार्थक कार्यकरण सुनिश्चित हुआ।

जाखड़ ने अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उस समय एक उल्लेखनीय ऐतिहासिक समझबूझ का परिचय दिया, जब उन्होंने संसदीय संग्रहालय और अभिलेखागार तथा राष्ट्रीय उपलब्धि कक्ष की स्थापना के लिए पहल की। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के नेताओं की महान कुर्बानियों और योगदान को स्मरण करने में उनके द्वारा दिखाई गई रूचि से उनकी ऐतिहासिक समझबूझ प्रमाणित होती है। इस संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद और दादा साहेब मावलंकर की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित समारोहों का उल्लेख किया जा सकता है।

जाखड़ ने अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल के दौरान भारत की संसद और अन्य देशों की संसदों तथा अन्तरराष्ट्रीय संसदीय संघों के बीच अन्तर-संसदीय सम्पर्क और सहयोग बढ़ाने पर भी विशेष ध्यान दिया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जाखड़ ने विभिन्न स्तरों पर संसदविज्ञों के कई सम्मेलन आयोजित कराये। उनकी पहल पर ही नई दिल्ली में वर्ष 1981 में राष्ट्रमंडल संसदीय संघ का क्षेत्रीय सेमिनार और वर्ष 1986 में राष्ट्रमण्डल अध्यक्षों और पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन आयोजित किया गया। वह राष्ट्रमण्डल संसदीय संघ और आई.पी.यू. की गतिविधियों के साथ भी अत्यधिक सक्रियता से जुड़े हुए थे। जाखड़ ने आई.पी.यू. और राष्ट्रमण्डल संसदीय संघ सम्मेलनों में तथा विश्व की अन्य संसदों के दौरों के दौरान सर्वाधिक संख्या में भारतीय संसदीय शिष्टमण्डलों का नेतृत्व किया।

जाखड़ वर्ष 1980 से कई वर्षों तक राष्ट्रमण्डल संसदीय संघ की कार्यकारिणी समिति के सदस्य रहे। वह एशिया के पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें वर्ष 1984 में तीन वर्ष के कार्यकाल के लिए राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की कार्यकारिणी समिति का सभापति चुना गया था। इन पदों पर रहते हुए उन्होंने राष्ट्रमण्डल कार्यकारिणी समिति की कई बैठकों की अध्यक्षता की और उनमें भाग लिया। वह वर्ष 1983 में आई.पी.यू. की कार्यकारिणी समिति के सदस्य भी चुने गए थे।

जाखड़ ने नौवीं लोक सभा के गठन के साथ ही 18 दिसम्बर, 1989 को अध्यक्ष का पद छोड़ दिया। लोक सभा के अध्यक्ष के रूप में एक दशक के अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने अध्यक्ष के पद पर और संसद में तथा देश पर जो अमिट छाप छोड़ी, उसे कांग्रेस पार्टी ने जिसकी उन्होंने यह पद ग्रहण करने से पहले लम्बे समय तक सेवा की थी, पूरा महत्व दिया। उनकी उपलब्धियों और पार्टी के प्रति सेवाओं को स्वीकार करते हुए उन्हें पार्टी अध्यक्ष द्वारा वर्ष 1990 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (इ.) का महासचिव नियुक्त किया गया।

तत्कालीन सरकार के गिरने के पश्चात् वर्ष 1991 के आम चुनावों में बलराम जाखड़ सीकर निर्वाचन क्षेत्र से लोक सभा के लिए एक बार फिर निर्वाचित हुए और नई सरकार में कृषि मंत्री बने।

वर्ष 1991-96 की अवधि के दौरान केन्द्रीय कृषि मंत्री के रूप में जाखड़ की मुख्य चिंता भारतीय किसानों, जिनकी संख्या देश की कुल जनसंख्या का लगभग 80 प्रतिशत है, के हितों की रक्षा करना था। उन्होंने किसानों के हितों को संसद तथा सरकार के समक्ष सफलतापूर्वक रखा तथा उनकी रक्षा की। उन्होंने सरकार द्वारा, जिसका वह भी एक हिस्सा थे, शुरू किये गए अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के कारण किसानों को दी जाने वाली राज-सहायता में कटौती करने के राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय, दोनों प्रकार के दबावों का कड़ा प्रतिरोध किया। उनका दृढ़ विश्वास था कि देश के किसानों की कीमत पर उद्योगों को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। कृषि मंत्री के रूप में अनेक शिष्टमण्डलों का अन्य देशों में नेतृत्व करने के अलावा उन्होंने मात्स्यिकी तथा कृषि से संबंधित विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

जाखड़ ने 1996 में ग्यारहवीं लोक सभा का चुनाव नहीं लड़ा। तथापि, वह कांग्रेस पार्टी के मामलों तथा राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रहे। वैसे भी, ग्यारहवीं लोक सभा का कार्यकाल छोटा होने के कारण जाखड़ को शीघ्र ही फरवरी, 1998 में राजस्थान में बीकानेर निर्वाचन क्षेत्र से सफलतापूर्वक एक और चुनाव लड़ने का अवसर मिल गया।

कांग्रेस तथा राष्ट्रीय राजनीति में एक वरिष्ठ नेता तथा प्रतिष्ठित सांसद होने के अलावा जाखड़ भारत कृषक समाज के अध्यक्ष तथा जलियावाला बाग स्मारक न्यास की प्रबंध समिति के अध्यक्ष भी रहे हैं। वह अन्य अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक तथा साहित्यिक संगठनों से भी सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि उनका व्यस्त सार्वजनिक जीवन उनके लेखन जैसे विद्वतापूर्ण कार्यों में कभी बाधा नहीं बना और उन्होंने समकालीन भारतीय राजनीति पर "पीपुल, पार्लियामेंट एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन " नामक प्रामाणिक पुस्तक लिखी है। कृषि, खेलकूद तथा साहित्यिक क्रियाकलापों में अनवरत रूचि रखते हुए तथा आवश्यक संसदीय और सार्वजनिक कार्यों में संलग्न रहते हुए जाखड़ आज अत्यन्त व्यस्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं तथा 75 वर्ष की आयु में भी बहुत उत्साही और जिंदादिल इंसान हैं।

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