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जी.वी. मावलंकर

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यदि कोई यह पूछे कि लोक सभा के किस अध्यक्ष ने हमारी संसदीय संस्थाओं को सर्वाधिक प्रभावित किया तो निश्चित रूप से इस प्रश्न का उत्तर होगा - श्री गणेश वासुदेव मावलंकर, जिन्हें प्यार से दादा साहब मावलंकरके नाम से याद किया जाता है तथा जिन्हें स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने "लोक सभा के जनक" की उपाधि से सम्मानित किया था। नवोदित राष्ट्र की पहली लोक सभा के प्रथम अध्यक्ष के रूप में मावलंकर जी की भूमिका लोक सभा की कार्यवाही दक्षतापूर्वक संचालन करने तक ही सीमित नहीं थी अपितु एक ऐसे राजनेता और जनक की थी जिसे देश के लोकाचार के अनुरूप नियम, प्रक्रियाएं, रूढ़ियां और परपरायें निर्धारित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उन्होंने अपनी इस जिम्मेदारी को धैर्य, पूरी लगन तथा बुद्धिमत्तापूर्वक और इन सबसे बढ़कर उल्लेखनीय इतिहास बोध के साथ अंजाम दिया। वे स्वयं भी सदन की मान-मर्यादाओं का पालन करते थे तथा दूसरों से भी इनका अनुपालन सुनिश्चित करवाते थे। निस्संदेह वे एक आदर्श अध्यक्ष थे- दृढ़ किन्तु लचीले, सख्त किन्तु सहृदय और दयालु तथा वे सदैव सदन के समस्त वर्गों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करते थे।

गणेश वासुदेव मावलंकर का जन्म 27 नवम्बर, 1888 को वर्तमान गुजरात राज्य के बड़ौदा नगरमें हुआ था। उनका परिवार तत्कालीन बम्बई राज्य के रत्नागिरी जिले में मावलंग नामक स्थान का मूल निवासी था। मावलंकर तत्कालीन बम्बई राज्य में विभिन्न स्थानों पर अपनी आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए 1902 में अहमदाबाद आ गये। उन्होंने 1908 में गुजरात कालेज, अहमदाबाद से विज्ञान विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। कानून की शिक्षा आरंभ करने से पहले वे 1909 में एक वर्ष इस कालेज के "दक्षिण फेलो " रहे। 1912 में उन्होंने कानून की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।

मावलंकर ने 1913 में वकालत शुरू की और वे बहुत ही कम समय में एक अग्रणी तथा प्रतिष्ठित वकील बन गए। यद्यपि, उनकी वकालत खूब चलती थी, तथापि, उन्होंने इसके साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी गहन रूचि ली जिसके कारण वे सरदार वल्लभभाई पटेल और महात्मा गांधी जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नेताओं के संपर्क में आये। मावलंकर बीस-बाईस वर्ष की उम्र से ही एक पदाधिकारी के रूप में या एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में गुजरात के अनेक प्रमुख सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ गए। वे 1913 में गुजरात शिक्षा सोसाइटी के मानद सचिव रहे और 1916 में गुजरात सभा के भी सचिव रहे।

मावलंकर बहुत छोटी उम्र से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जो महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश की स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चला रही थी, के साथ सक्रिय रूप से जुड़ गये। उन्होंने इस शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक में गुजरात में स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। वे स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अनेक बाद जेल गये और लगभग छह वर्ष जेल में रहे। जब भी कभी प्राकृतिक आपदा आती थी या अकाल पड़ता था अथवा कोई अन्य सामाजिक अथवा राजनैतिक संकट उत्पन्न होता था तो मावलंकर अपनी फलती-फूलती वकालत को पूरी तरह छोड़कर लोगों की सहायता के लिए आगे आ जाते थे। उनके नेतृत्व संबंधी गुणों और उनके योगदान को पहचानते हुये उन्हें 1921-22 के दौरान गुजरात प्रादेशिक कांग्रेस समिति का सचिव नियुक्त किया गया। वे दिसम्बर, 1921 में अहमदाबाद में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 36वें अधिवेशन की स्वागत समिति के महासचिव भी थे। उन्होंने "खेरा-नो-रेंट " आन्दोलन में अति सक्रिय भूमिका निभायी और बाद में अनेक अवसरों पर अकाल और बाढ़ राहत कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया।

मावलंकर शक्तियों के विकेन्द्रीकरण और पंचायती संस्था में पूर्ण विश्वास रखते थे तथा उन्होंने अहमदाबाद नगर निगम के लिए लगभग दो दशक तक निष्ठापूर्वक कार्य किया। वे 1919 से लेकर 1937 तक अहमदाबाद नगर निगम के सदस्य रहे। वे 1930-33 और 1935-36 के दौरान दो बार इसके अध्यक्ष रहे। उनके कार्यकाल के दौरान अहमदाबाद ने अभूतपूर्व प्रगति की। नगर निगमों तथा स्थानीय निकायों के क्रियाकलापों में उनकी रूपचि जीवनपर्यन्त बनी रही।

मावलंकर राष्ट्रीय राइफल संघ और इंस्टीटय़ूट फॉर एफ्रो-एशियन रिलेशन्स के संस्थापक चेयरमैन थे। उन्होंने गुजरात में शैक्षिक और साहित्यिक गतिविधियों में काफी रूचि ली। उन्होंने कुछ समय तक गुजरात विद्यापीठ में विधि के प्रोफेसर के रूप में भी कार्य किया। वे अहमदाबाद एजुकेशन सोसाइटी तथा गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी के संस्थापक-सदस्य और बाद में उनके अध्यक्ष भी रहे। जिन अन्य समितियों में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए उनसे जुड़े रहे वे हैं-गुजरात लॉ सोसाइटी और चारोतर एजुकेशन सोसाइटी। वे गुजरात विश्वविद्यालय संघ के कार्यकारी अध्यक्ष और गुजरात विश्वविद्यालय संबंधी समिति के अध्यक्ष भी रहे और इन पदों पर रहकर उन्होंने गुजरात विश्वविद्यालय के लिए वित्त और अन्य आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए काफी मेहनत की।

मावलंकर की कई साहित्यिक उपलब्धियां भी थीं। गुजराती भाषा में लिखी गई उनकी पुस्तक "मनावतना झरना" में उन कैदियों की कुछ सच्ची कहानियां हैं जिनसे वे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 1942 से 1944 की अवधि के दौरान अपनी जेल यातना के दौरान उनसे मिले थे और उनका मार्गनिर्देशन किया था। यह पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई। बाद में इसका कुद अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी किया गया। गुजराती भाषा में लिखी एक अन्य पुस्तक "संस्मरणों" में उन्होंने गांधी जी के साथ अपने संस्मरणों को वर्णित किया है। अंग्रेजी में लिखी गई उनकी पुस्तक "माई लाइफ एट दि बार" में उनके 25 वर्षों के कानून से जुड़े सक्रिय जीवन के संस्मरण हैं।

मावलंकर का विधायी जीवन 1937 में आरम्भ हुआ जब वह अहमदाबाद नगर का प्रतिनिधित्व करते हुए तकालीन बंबई विधान सभा के लिए चुने गए। एक सुविख्यात वकील के रूप में मावलंकर की प्रतिष्ठा और विभिन्न पदों पर रहकर उनके द्वारा की गई गुजरात की जनता की 25 वर्षों तक सेवा से अर्जित सुदीर्घ अनुभव को देखते हुए बम्बई लेजिसलेटिव एसेम्बली द्वारा उन्हें सहज ही अध्यक्ष के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उन्हें अपना विधायी जीवन अध्यक्ष के पद से ही प्रारंभ करने का विशिष्ट सौभाग्य प्राप्त हुआ। वर्षों बाद, राष्ट्रीय स्तर पर भी उन्हें यही विशिष्ट सौभाग्य तब प्रापत हुआ, जब उन्हें 1946 में सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली का अध्यक्ष चुना गया। मावलंकर वर्ष 1937 से 1946 तक बंबई लेजिस्लेटिव एसेम्बली के अध्यक्ष रहे।

बम्बई लेजिस्लेटिव एसेम्बली के अध्यक्ष के रूप में उनकी सफलता को देखते हुए कांग्रेस पार्टी ने जनवरी 1946 में उन्हें छठी केन्द्रीय विधान सभा के प्रेजिडेंटशिप के लिए सहज प्रत्याशी बनाया। विपक्षी कांग्रेस पार्टी द्वारा उनका नामनिर्देशन किया जाना ही एसेम्बली में उनका निर्वाचन सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं था क्योंकि एसेम्बली के अधिसांख सदस्य सरकार के पक्षधर थे और इस पद के लिए उनका भी अपना एक प्रत्याशी था। तथापि कांटे की चुनौती वाले उस चुनाव में मावलंकर विजयी हुए। उनकी इस विजय से यही सिद्ध होता है कि वे एसेम्बली के सभी दलों के सदस्यों में बहुत लोकप्रिय थे।

मावलंकर 14-15 अगस्त, 1947 को मध्यरात्रि तक, जब भारतीय स्वाधीनता अधिनियम, 1947 के अंतर्गत सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली और "काउंसिल आफ स्टेट" का अस्तित्व समाप्त हो गया और भारत की संविधान सभा ने देश का शासन चलाने के लिए सभी शक्तियां प्राप्त कर लीं, सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली के अध्यक्ष रहे। भारत के स्वतंत्र होने पर, मावलंकर ने 20 अगस्त, 1947 को गठित एक समिति की अध्यक्षता की जिसका कार्य संविधान सभा की संविधान-निर्माणकारी भूमिका को उसकी विधायी भूमिका से अलग करने की आवश्यकता का अध्ययन करना और उसके संबंध में रिपोर्ट देना था। बाद में, इसी समिति की सिफारिश पर संविधान सभा की विधायी और संविधान निर्माणकारी भूमिकाओं को अलग-अलग कर दिया गया और यह निर्णय किया गया कि जब यह सभा देश के विधायी निकाय के रूप में कार्य करे तो इसकी अध्यक्षता के लिए एक अध्यक्ष होना चाहिए और पुनः संविधान सभा (विधायी) के सत्र की अध्यक्षता के लिए मावलंकर को चुना गया तथा तदनुसार उन्हें 17 नवम्बर, 1947 को अध्यक्ष चुन लिया गया।

26 नवंबर, 1949 को स्वतंत्र भारत का संविधान स्वीकार किये जाने तथा उसके परिणामस्वरूप संविधान सभा (विधायी) का नाम बदलकर अंतरिम संसद रखे जाने पर मावलंकर की हैसियत में भी तदनुसार परिवर्तन हुआ। इस प्रकार, मावलंकर 26 नवम्बर, 1949 को अंतरिम संसद के अध्यक्ष बने।

मावलंकर अंतरिम संसद की पूरी अवधि तक अर्थात् 1952 में प्रथम लोक सभा के गठन होने तक उसके अध्यक्ष बने रहे। वास्तव में, यह भारतीय विधान मण्डल के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण दौर था क्योंकि इसी अवधि के दौरान एक औपनिवेशिक संस्था के स्वतंत्र भारत के संविधान के अंतर्गत एक सप्रभुता सम्पन्न संसद के रूप में परिणत होने की प्रक्रिया पर नजर रखा जाना था। इसके अलावा, इसकाल में एक पूर्ण जिम्मेदार सरकार के नये युग का भी सूत्रपात हुआ।

नई स्थिति के अनुरूप संसद की कार्य प्रणाली में कई प्रक्रियात्मक नवीनताएं और परिवर्तन करना जरूरी था। इन परिवर्तनों को लाने और सुगम बनाने का काम मुख्यतया अध्यक्ष मावलंकर का ही था। संसद और देश की उनसे जो अपेक्षाएं थीं उन पर वे खरे उतरे। 1951-52 में देश में प्रथम लोक सभा की चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक, मावलंकर देश में एक प्रतिनिधिक संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक नियमों, व्यवहारों, प्रक्रियाओं और प्रथाओं के साथ तैयार थे। इसीतिए 15 मई, 1952 को जब प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत की प्रथम लोक सभा के अध्यक्ष पद के लिए मावलंकर का नाम प्रस्तावित किया तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। सदन ने प्रस्ताव को 55 के मुकाबले 394 मतों से स्वीकार किया।

अगले चार वर्षों में जब मावलंकर ने लोक सभा की अध्यक्षता की तो देश ने संस्था निर्माता के रूप में उनकी विलक्षण योग्यताओं को देखा। चूंकि उन्होंने पूर्वोदाहरणों को नई आवश्यकताओं के अनुरूप जोड़ा तथा परिवर्तन करते हुए निरन्तरता बनाये रखी, इसलिए अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल भारत में ससंदीय प्रक्रियाओं के विकास के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। उन्होंने न केवल कई नये नियमों और प्रक्रियाओं को शुरू किया वरन् वर्तमान नियमों को नई परिस्थतियों के अनुरूप परिवर्तित भी किया। उनकी पहल पर "प्रश्न काल" आधुनिक संदर्भ में सत्रों का एक नियमित एवं सार्थक भाग बन गया। सरकार से जानकारी हासिल करने के लिए संसदीय प्रक्रिया में "अल्प सूचना प्रश्न" और आधे घंटे की चर्चा" जैसे उपायों को समाविष्ट किया गया ताकि इनके माध्यम से वस्तुतः सरकार को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके। नई राजनीतिक स्थितियों के अनुरूप ढल सकें। अनेक नई समितियों का गठन भी किया गया।

नियम समिति, विशेषाधिकार समिति, कार्यमंत्रणा समिति, गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति, अधीनस्थ विधान संबंधी समिति, सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति, सभा की बैठकों से सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति, संसद सदस्यों के वेतन तथा भत्तों संबंधी संयुक्त समिति, सामान्य प्रयोजन समिति आदि जैसी समितियों का भारतीय संसद में गठन माननीय अध्यक्ष मावलंकर की पहल पर ही किया गया। मौजूदा समितियों के संचालन में सुधार लाने तथा उन्हें समयानुकूल संगत बनाने के लिए उन्होंने विभिन्न उपाय किए।

मावलंकर द्वारा दिये गए विभिन्न विनिर्णयों का न केवल सभा के संचालन में बल्कि देश में अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं के भी संचालन में अपना दूरगामी महत्व है। वास्तव में, उनके विनिर्णय लोक सभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन संबंधी नियमों में अनेक प्रविष्टियों अनुक प्रतिविष्टयों के आधार हैं। अपने कार्यकाल के दौरान अपने समक्ष आए पर विनिण्रय देने हेतु अपने विवेक का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग करके उन्होंने कई महत्वपूर्ण प्रक्रियात्मक मुद्दों का समाधान किया तथा कई सिद्धांत निर्धारित किए। उक्त मुद्दों में प्रस्ताव में सम्पूर्ण संसदीय गतिविधियां तथा एक तरह से राष्ट्र के पूरे जीवन का समावेश हो जाता है।

देश में विभिन्न संसदीय कार्यों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने के बावजूद माननीय अध्यक्ष मावलंकर ने भारत की संसद तथा अन्य देशों की संसदों और अन्तरराष्ट्रीय संसदीय संघों के बीच सक्रिय अन्तर-संसदीय सम्पर्क बनाए रखने के महत्व की अनदेखी नहीं की। दूसरे देशों की संसदों से भारतीय संसद के संबंधों को मधुर बनाने एवं सुदृढ़ करने के उद्देश्य से मावलंकर ने संसदों के बीच शिष्टमंडलों की परस्पर बातचीत को प्रोत्साहित किया तथा इस प्रकिया को सुगम बनाया । स्वयं उन्होंने कई शिष्टमंडलों का नेतृत्व किया और कई शिष्टमंडलों की भारत में अगवानी की। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान विश्व के विभिन्न भागों में हुए अन्तर-संसदीय संघ और राष्ट्रमंडल संसदीय संध के अनेक सम्मेलनों में भाग लिया। उन्होंने 26 अक्टूबर 1950 को लन्दन में नए "हाउस आफ कॉमन्स" के उद्घाटन समारोह में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने 1953 में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के राज्यभिषेक समारोह में भाग लिया और उस समय लन्दन में आयोजित राष्ट्र मंडल संसदीय संघ की केन्द्रीय परिषद की बैठक में भी भाग लिया।

मावलंकर ने भारत में विधान सभाओं के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलनों के आयोजन की प्रथा को भी अत्यधिक प्रोत्साहन दिया और समर्थन प्रदान किया। 1946 में केन्द्रीय विधान सभा के प्रेजिडेंट बनने की अवधि से लेकर 1956 में निधन की अवधि तक वे इस महत्वपूर्ण सम्मेलन के अध्यक्ष रहे। इन सम्मेलनों ने देश की विधान सभाओं के सभा पीठासीन अधिकारियों को आपस में एक-दूसरे के अनुभवों और दृष्टिकोण को जानने तथा पूरे देश में कतिपय समान प्रथा और प्रक्रिया स्थापित करने तथा संसदीय लोकतंत्र की स्वस्थ और बहुमूल्य परम्परायें स्थापित करने के अवसर प्रदान किये।

प्रथम लोक सभा के अध्यक्ष के रूप में एक अन्य पहलू जिस पर मावलंकर का विशेष ध्यान गया वह था लोक सभा सचिवालय। मावलंकर का यह स्पष्ट विचार था कि हमारी शासन प्रणाली में संसद की सर्वोच्चता और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह महत्वपूर्ण है कि पीठासीन अधिकारियों के सीधे नियंत्रण में संसद का एक स्वतंत्र सचिवालय हो। उनका दृढ़ मत था कि विधानमंडल के अध्यक्ष और प्रतिनिधि के रूप में अध्यक्ष को ऐसे व्यक्तियों की सहायता और परामर्श मिलना चाहिए जो कार्यपालिका का दबाव महसूस किए बिना निष्पक्ष रूप से परामर्श दे सके। उनके अनुसार संसद के सचिवालय में सेवारत अधिकारियों का मार्गदर्शन केवल स्वतंत्रता, विश्वास, यथार्थता और तत्परता के सिद्धांतों से ही होना चाहिए।

मावलंकर संसद सदस्यों को एक उपयुक्त कार्य परिवेश प्रदान करने के इच्छुक थे और इसीलिए कार्य करने के लिए अधिकतम संभव सुविधएं उपलब्ध कराने की मांग की गई, जिससे कि सदस्य प्रभावी सांसद बन सकें। उनका विश्वास था कि तथ्यपरक और तत्काल सूचना सांसद के लिए आवश्यक आदान है। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने लोक सभा सचिवालय के अंग के रूप में संसद में एक भरी-पूरी अनुसंधान और संदर्भ सेवा स्थापित की। उन्होंने सदस्यों के लिए पुस्तकालय सुविधाओं में सुधार में भी पूरी रूचि ली।

जब तक मावलंकर लोक सभा के अध्यक्ष रहे उन्होंने राजनीति में सक्रिय रूप से भाग नहीं लिया। यद्यपि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अपना संबंध विच्छेद नहीं किया था तथापि इससे संसद में उनका अपना आचरण प्रभावित नहीं हुआ। वे सदैव निष्पक्ष बने रहे और इस प्रकार अध्यक्ष के रूप में अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उन्हें सम्पूर्ण सभा का आदर और सम्मान प्राप्त हुआ।

मावलंकर का अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल 1956 की शुरूआत में उनके आकस्मिक निधन के साथ ही समाप्त हो गया। अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए भी मावलंकर सेवा ग्राम विकास और उपेक्षित वर्गों के विकास के लिए समर्पित अनेक अन्य संगठनों औरन्यासों में विभिन्न पदों पर कार्य करके उनसे जुड़े रहे। इनमें साबरमती में महात्मा गांधी का हरिजन आश्रम, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक कोष और गांधी स्मारक न्यास शामिल हैं। दिस्म्बर, 1950 में मावलंकर सरदार पटेल के उत्तराधिकारी के रूप में गांधी स्मारक न्यास के अध्यक्ष बने। कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक कोष और गांधी स्मारक न्यास के कार्य के सिलसिले में मावलंकर ने भारत के सभी भागों की यात्रा की क्योंकि वे सभी केन्द्रों के कार्यकरण को व्यक्तिगत रूप से देखने और साधारण कार्यकर्ताओं से मिलने के उत्सुक थे। उन्होंने अपने स्वास्थ्य और व्यक्तिगत आराम की परवाह न करते हुए लम्बी और दुसाध्य यात्राएं जारी रखीं। जनवरी, 1956 में ऐसी ही एक यात्रा के दौरान मावलंकर को दिल का दौरा पड़ा और अन्ततः 27 फरवरी, 1956 को अहमदाबाद में उनका निधन हो गया।

उनके निधन पर कृतज्ञ राष्ट्र और उसकी संसद ने अपने सम्माननीय अध्यक्ष को, जिन्होंने भारत में गणतंत्र के अन्य संस्थापकों के साथ संसदीय लोकतंत्र की ठोस एवं पक्की बुनियाद रखी, भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। पांच दशकों की अपनी नःस्वार्थ सेवा के जरिये गणेश वासुदेव मावलंकर ने अपने से जुड़े सभी क्षेत्रों में अपने व्यक्तित्व की गहरी छाप छोड़ी। इस बात पर कोई विवाद नहीं कि उनके व्यक्तित्व का सर्वाधिक प्रभाव अध्यक्ष के पद और संसद पर पड़ा।

दस वर्षों से अधिक अवधि (1946-56) तक मावलंकर ने भारत की संसद में वाद-विवाद का गरिमा, ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ मार्ग-निर्देशन किया। अध्यक्ष पद की स्वतंत्र भूमिका और कृत्यों, विधान मंडल का एक स्वतंत्र सचिवालय जो केवल अध्यक्ष के प्रति उत्तरदायी हो, के होने की आवश्यकता, जन प्रतिनिधियों के विशेषाधिकारों के प्रश्न, सरकारी व्यय की संवीक्षा के लिए संसदीय समितियों के गठन की आवश्यकता, संसद के कार्यकरण में शालीनता और गरिमा बनाए रखने की आवश्यकता तथा संसदीय प्रणाली की सरकार के अन्य सभी बुनियादी और मूलभूत मानदण्डों के बारे में अध्यक्ष मावलंकर का दृष्टिकोण बहुत ही स्पष्ट था और उन्हें वर्तमान प्रणाली का एक अभिन्न अंग बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। जब भारत के प्रधान मंत्री और सदन के नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मावलंकर के पीठासीन होने पर उन्हें लोक सभा का जनक कहा था तो शायद वे संपूर्ण राष्ट्र की भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहे थे, और जब विपक्ष के दिग्गज नेताओं ने, जिनमें से कई नेताओं की योग्यता और हैसियत सत्ता पक्ष के नेताओं के समान ही थी, उन्हें "संसदीय लोकतंत्र का तारनहार" और "विपक्ष के अधिकारों का वास्तविक अभिरक्षक" कहा तो यह स्वयं अध्यक्ष के पद और दादा साहिब मावलंकर के राजकौशल के प्रति अभिव्यक्त प्रशंसा थी।

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