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बली राम भगत

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वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी, संसदीय व्यवस्था के गहन अनुभवी तथा संसदीय प्रक्रियाओं तथा कार्यसंचालन नियमों के अच्छे ज्ञाता श्री बली राम भगत जब जनवरी, 1976 में पांचवीं लोक सभा के अध्यक्ष निर्वाचित किए गए, तब सभा का निर्धारित कार्यकाल समाप्त होने को था। भगत में अध्यक्ष पद के लिए अपेक्षित सभी योग्यताएं विद्यमान थीं। वे स्पष्टवादी, ईमानदार, दृढ़ और निष्पक्ष व्यक्ति थे। सभा तथा उसकी परम्पराओं में उनकी गहरी श्रद्धा थी। स्वतंत्रता के पश्चात् लोक सभा अध्यक्ष के रूप में भगत का चौदह मास से भी कम अवधि का कार्यकाल सबसे छोटा कार्यकाल था किन्तु इस संक्षिप्त अवधि में उन्होंने सदन की कार्यवाही पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। अध्यक्ष पद पर रहने के बाद राज्यपाल के रूप में उन्होंने जिस प्रकार कार्य किया, उससे यह सिद्ध हो गया कि वे सहज रूप से एक योग्य और प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति हैं। विभिन्न राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उन्होंने अपनी योग्यता का परिचय दिया।

पेशे से एक कृषक, राजनीतिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता, बली राम भगत का जन्म 7 अक्तूबर, 1922 को पटना, बिहार में हुआ था। उन्होंने स्नातक की शिक्षा पटना कॉलेज से प्राप्त की और बाद में पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र निष्णात उपाधि प्राप्त की।

भगत की राजनीति के प्रति प्रबल रूचि और उनकी प्रगाढ़ देशभक्ति उन्हें विद्यार्थी जीवन में ही स्वतंत्रता संग्राम की ओर मोड़ दिया। 1939 में 17 वर्ष की अल्पायु में ही, वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और उन्होंने पार्टी द्वारा देश को विदेशी शासन से मुक्त कराने के लिए शुरू किए गए कई संघर्षों में भाग लिया। सन 1942 में, भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और दो वर्ष तक भूमिगत रहे। वह सन् 1944 में अखिल भारतीय विद्यार्थी कांग्रेस के संस्थापक सदस्य और 1946-47 के दौरान बिहार प्रदेश विद्यार्थी कांग्रेस के महासचिव भी रहे।

भगत का राष्ट्रीय राजनीति के साथ संबंध 1950 में शुरू हुआ जब वह अंतरिम संसद के लिए निर्वाचित हुए। राजनीति मे उनकी गहरी रूचि के कारण वह ऐसी स्थिति में आ गए जहां वह नि:स्वार्थ भाव और अदम्य उत्साह से अपनी मातृभूमि की सेवा कर सकते थे। इन दो वर्षों में उन्होंने विभिन्न चर्चाओं में सक्रिय रूप से भाग लिया और अपने को योग्य सांसद के रूप में प्रतिष्ठित किया।

अंतरिम संसद से लेकर प्रथम लोक सभा और तत्पश्चात् लगातार द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पांचवीं लोक सभा तक भगत का संसदीय जीवन बहुत लम्बा और निर्बाध रहा। इस अवधि के दौरान, वह अनेक मंत्रालयों में रहे। भगत 1952 से 1956 तक वित्त मंत्री के संसदीय सचिव रहे। 1956 में वह वित्त मंत्रालय में उपमंत्री बने और लगातार सात वर्ष तक इस पद पर बने रहे, इस प्रकार उन्हें लगातार तीन लोक सभाओं के दौरान इसी पद पर बने रहने का गौरव प्राप्त हुआ।

1963 में भगत योजना मंत्रालय में राज्य मंत्री बने तथा जनवरी, 1966 तक इसी पद पर रहे। 1963-67 के दौरान वह वित्त मंत्रालय में राज्य मंत्री रहे। 1967 में विदेश राज्य मंत्री बनने से पूर्व वह उसी वर्ष कुछ समय तक रक्षा मंत्रालय में मंत्री रहे। 1969 में उन्हें विदेश व्यापार और आपूर्ति मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया। बाद में 8 महीनों तक वह इस्पात और भारी इंजीनियरी मंत्रालय के मंत्री भी रहे।

एक सुयोग्य सांसद तथा कुशल वक्ता के रूप में भगत ने सभा की कार्यवाही में भारी योगदान किया। मंत्री के रूप में वह सदैव सभा में प्रश्नकाल, वाद-विवाद और चर्चा के लिए पूरी तरह तैयार होकर आते थे। उनके संसदीय कौशल और वाक्चातुर्य तथा देश की समस्याओं के प्रति उनके सकारात्मक दृष्टिकोण की प्रत्येक व्यक्ति ने प्रशंसा की। समय-समय पर विभिन्न मंत्रालयों के कार्यों की उनकी गहरी समझ की विपक्ष के सदस्य भी प्रशंसा करते थे।

इसी पृष्ठभूमि के कारण उन्हें, गुरदयाल सिंह ढिल्लों द्वारा अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिए जाने के बाद रिक्त हुए पद पर 5 जनवरी, 1976 को पांचवीं लोक सभा के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित किया गया। व्यापक और विविध प्रशासनिक अनुभव वाले वयोवृद्ध सांसद भगत को उस समय अध्यक्ष चुना गया जब देश में आपातकाल लगा हुआ था। अध्यक्ष पद पर चुने जाने के समय के बारे में पूरी तरह से सजग भगत ने सदस्यों को याद दिलाया कि संसद जनता की एक सर्वोपरि संस्था है और इसे सदैव जनसाधारण की इच्छाओं तथा अभिलाषाओं का विशेष ध्यान रखना चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि सभा में होने वाले वाद-विवाद सदैव इस उदात्त लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में होने चाहिए। उन्होंने सदस्यों को आश्वासन दिया कि वह भी सभा के एक सेवक हैं और सभा के सभी सदस्य उनके लिए समान हैं।

अनुशासन और शालीनता को महत्व देने वाले भगत संसदीय परंपराओं और मर्यादाओं के पालन के प्रति आग्रही थे। प्रक्रियात्मक औचित्य के प्रति उनकी चिन्ता का सर्वोत्तम उदाहरण ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के संबंध में दिया गया उनका वह विनिर्णय है जिसमें उन्होंने व्यवस्था दी कि ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए समय 30-35 मिनट तक सीमित होना चाहिए और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव प्रस्तुत करने वाले प्रत्येक सदस्य को 3-4 मिनट तथा अन्य सदस्यों को 2-3 मिनट का ही समय लेना चाहिए। मंत्री का उत्तर पूर्ण किन्तु संक्षिप्त होना चाहिए।

अध्यक्ष के रूप में भगत ने संसदीय आचरण के मूल आदर्शों को बनाए रखा और कठिन स्थितियों में भी सदैव शांत और सौम्य बने रहे। सदस्यों के विशेषाधिकार के संरक्षण के प्रति वह विशेष सजग थे। उनके अध्यक्ष के कार्यकाल के दौरान बिहार में किसी सदस्य को जेल से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक ले जाते समय हथकड़ी लगाए जाने के बारे में विशेषाधिकार का एक प्रश्न सभा के सामने आया। उन्होंने संबंधित अधिकारियों की कार्यवाही को नितांत अनुचित ठहराया और उसकी निंदा की। अध्यक्ष भगत ने कहा कि किसी सदस्य को हथकड़ी लगाना गृह मंत्रालय और बिहार सरकार के अनुदेशों की पूर्ण अवमानना तथा अवज्ञा है। उन्होंने आशा व्यक्त की कि भविष्य में संगत अनुदेशों का कड़ाई तथा ईमानदारी से अनुपालन किया जाएगा।

सिद्धांतवादी होने के कारण भगत सदा नियमों के अनुसार कार्य करने में विश्वास रखते थे। एक दिन जब प्रश्न काल आरंभ हुआ, वह यह देख कर हैरान हो गए कि प्रश्न सूची में नामदर्ज सदस्यों में से अधिकतर सभा में उपस्थित नहीं थे जिसके कारण थोड़ी ही देर में ही प्रश्न काल समाप्त हो गया। इस स्थिति पर गंभीर चिंता जाहिर करते हुए अध्यक्ष भगत ने टिप्पणी की कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है और इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।

सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति के कार्यकरण को सुदृढ़ तथा अधिक प्रभावी बनाने के लिए सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति के सभापतियों का पहला सम्मेलन भगत के अध्यक्ष काल के दौरान मार्च, 1976 में हुआ। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए कि सभा में दिए गए आश्वासनों को सरकार द्वारा पूरा किया जाए।

केन्द्र तथा राज्य, दोनों में विधायी निकायों को सुचारू, कुशल और तत्काल सेवा प्रदान करने के उद्देश्य से गठित संसदीय अध्ययन तथा प्रशिक्षण ब्यूरो का, जो लोक सभा सचिवालय का एक अभिन्न अंग है, उद्घाटन भी अध्यक्ष भगत द्वारा 1976 में किया गया था। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि ब्यूरो की रूपरेखा इस प्रकार से तैयार की गई है कि इससे लोकतांत्रिक प्रणाली को चलाने के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों, विधायकों, नीति निर्धारकों और विभिन्न स्तरों पर कार्य कर रहे अन्य विभिन्न कर्मचारियों को संसदीय संस्थाओं और प्रक्रियाओं के विभिन्न पहलुओं का विधिवत् ढंग से प्रशिक्षण दिया जा सके, उनका पुनश्चर्या पाठय़क्रम चलाया जा सके, उन्हें समस्याओं के समाधान से संबंधित पहलुओं का अध्ययन तथा अभ्यास कराया जा सके। प्रशिक्षण कार्यक्रमों के अत्यधिक महत्व से सहमत होते हुए अध्यक्ष भगत को यह विश्वास था कि आने वाले समय में ब्यूरो संसदीय विज्ञान के क्षेत्र में उन्नत अध्ययन और अनुसंधान तथा प्रशिक्षण के प्रतिष्ठित केन्द्र के रूप में उभर कर सामने आएगा और यह न केवल भारत में राज्य विधानमंडलों के साथ बल्कि विश्व भर में इसी प्रकार के संस्थानों और संसदों के साथ भी जुड़ा रहेगा।

अपने संसदीय जीवन के दौरान भगत ने अनेक अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारतीय संसद का प्रतिनिधित्व किया। शुरू में वर्ष 1951 में उन्होंने इस्ताम्बुल में और बाद में 1981 में हवाना में हुए अन्तर-संसदीय संघ सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने सितम्बर, 1976 में लन्दन में हुए राष्ट्रमंडल अध्यक्षों और पीठासीन अधिकारियों के चौथे सम्मेलन में भी भाग लिया। इसके अतिरिक्त, उन्होंने वर्ष 1953, 1954, 1955, 1956, 1957, 1958 और 1964 में हुए कोलम्बो योजना सम्मेलन की बैठकों में भाग लिया।

भगत ने आर्थिक सहयोग, व्यापार और विकास संबंधी कई मंत्रालयों में कार्य किया था। वह प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू और जापान के प्रधानमंत्री श्री नाबुसुके कीशी के बीच हुई बैठकों के परिप्रेक्ष्य में स्थापित "भारत और जापान में आर्थिक विकास अध्ययन संबंधी संयुक्त समिति" के सह-अध्यक्ष थे। वह 1963-75 के बीच लगभग बारह वर्षों तक इस पद पर बने रहे। इस निकाय ने, जिसमें दोनों देशों के अग्रणी अर्थशास्त्री, व्यापारी तथा प्रशासक शामिल थे, भारतीय अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों के विकास में प्रमुख भूमिका अदा की।

अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग में दृढ़ विश्वास रखने वाले भगत ने वर्ष 1964 तथा 1965 में एशियाई विकास बैंक की प्रारंभिक बैठकों में सक्रियता से भाग लिया जिसके फलस्वरूप मनीला में इस बैंक की स्थापना हुई। यहां उन्होंने भारत के राष्ट्रपति के विशेष दूत के रूप में चार्टर पर हस्ताक्षर किए। उन्हें वर्ष 1966 में तोक्यो में एशियाई विकास बैंक के गवर्नर के रूप में उद्घाटन अधिवेशन में भाग लेने का सम्मान भी प्राप्त हुआ। वह वर्ष 1954 तथा पुनः 1958 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की वार्षिक बैठक के वैकल्पिक गर्वनर रहे। वर्ष 1972 में राष्ट्र संघ के अल्पसंख्यक सुरक्षा तथा भेदभाव निवारण संबंधी उप-आयोग का अध्यक्ष होने के अलावा भगत वर्ष 1972 से 1977 तक इसके सदस्य रहे। वह 1955 में तोक्यो में हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के एशिया तथा सुदूर पूर्व संबंधी आर्थिक आयोग (इकाफे) के सम्मेलन और वर्ष 1968 में दिल्ली में हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यापार और विकास सम्मेलन में भारतीय शिष्टमण्डल के नेता थे। उन्होंने वर्ष 1968 तथा पुनः वर्ष 1985 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा के अधिवेशन में भारतीय शिष्टमण्डल का नेतृत्व किया।

भगत उस भारतीय शिष्टमण्डल के उप नेता थे जिसने वर्ष 1956 में बैंकाक में "इकाफे" और 1964 में जेनेवा में अंकटाड की उद्घाटन बैठकों में तथा 1969 में लंदन तथा 1985 में नसाऊ (बहमास) में हुए राष्ट्रमण्डल राज्याध्यक्षों के शिखर सम्मेलन में भाग लिया।

मानवाधिकार के क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ता भगत ने मानवाधिकार संबंधी संयुक्त राष्ट्र आयोग के 1982-83 में जेनेवा में आयोजित सम्मेलन में भारतीय शिष्टमण्डल का नेतृत्व किया। उन्हें 1983 में मानवाधिकार आयोग की तैंतीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र सेमिनार की अध्यक्षता करने का भी गौरव प्राप्त हुआ। उन्होंने इस बात पर विशेष बल दिया कि "आर्थिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय प्रालेख" को - विशेषकर काम के अधिकार को - राजनैतिक और नागरिक अधिकारों का एक विशिष्ट अंग माना जाये। अपने देश से दूर किसी अन्य देश में समान अधिकारों से वंचित रह कर कार्य कर रहे प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों के समर्थन में भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। भगत ने विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में इस बात पर जोर दिया कि प्रवासी श्रमिकों को वही नागरिक और आर्थिक अधिकार मिलने चाहिए जो इस देश के स्थानीय निवासियों को दिए जाते हैं। महिलाओं और बाल अधिकारों के संबंध में प्रसंविदाएं उनके अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार निकायों के साथ जुड़े रहने के समय तैयार की गईं।

कोलम्बो योजना, "इकाफे" और एशियाई विकास बैंक के साथ लाभकारी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग और भारत-जापान सहयोग को बढ़ावा देने के संबंध में भगत की सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका की अहमियत को स्वीकारते हुए प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने एक बार कहा था कि "अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग प्राप्त करने में उन्हें महारत हासिल है"।

1980 के आम चुनावों में भगत सातवीं लोक सभा के लिए पुनः निर्वाचित हुए। सातवीं लोक सभा के दौरान भगत ने, छठी लोक सभा द्वारा श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुद्ध पारित कारावास दण्ड को समाप्त करने के लिए एक संकल्प प्रस्तुत किया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि 1782 के पश्चात्, जबकि ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स ने 1764 में यथोचित रूप से निर्वाचित एक सदस्य के निष्कासन के अपने पूर्वपारित संकल्प को पत्रिकाओं में से निकाल देने का आदेश दिया था, किसी भी संसद ने कहीं भी ऐसे अधिकार का प्रयोग नहीं किया। लोक सभा द्वारा संकल्प को स्वीकार किए जाने को हमारे संसदीय इतिहास में एक मुख्य प्रक्रियात्मक घटना कहा गया है।

भगत आठवीं लोक सभा के लिए भी निर्वाचित होकर आये। वह थोड़े समय तक वर्ष 1985-86 में श्री राजीव गांधी की सरकार में विदेश मंत्री रहे।

फरवरी, 1993 में भगत को हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इस पद पर वह चार महीने तक रहे। बाद में वह 30 जून, 1993 से 1 मई, 1998 तक राजस्थान के राज्यपाल रहे। उनकी बुद्धिमत्ता और सहृदयता तथा उनका लम्बा सार्वजनिक जीवन राज्यपाल के रूप में काम करने में उनके लिए काफी सहायक सिद्ध हुए।

भगत एक विख्यात पत्रकार और लेखक भी रहे। "भारत छोड़ो आन्दोलन" के दौरान उन्होंने भूमिगत रहकर "आवर स्ट्रगल" तथा "नॉन-वायलन्ट रिवोल्यूशन" नामक दो साप्ताहिकों का संपादन किया था। 1947 में उन्होंने पटना से हिन्दी की एक प्रगतिशील साप्ताहिक पत्रिका "राष्ट्र दूत" आरम्भ की थी। प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्रों में राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय तथा आर्थिक विषयों पर नियमित रूप से लेख लिखने के अतिरिक्त भगत ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर - "नॉन-एलाइनमेंटः प्रेजेंट एंड फ्यूचर" तथा "कॉमनवेल्थ टुडे" नामक दो पुस्तकें भी लिखीं।

छह दशकों तक लगातार कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े रह कर भगत ग्रामीण क्षेत्रों तथा कमजोर वर्गों की प्रगति के लिए प्रतिबद्ध रहे। वह एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता थे तथा वे भूमिहीन किसानों एवं समाज के अन्य वंचित वर्गों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए आजीवन सतत संघर्षरत रहे और विभिन्न दैनिक पत्र-पत्रिकाओं में लेख आदि लिखकर वंचित निर्धन वर्ग की आवाज को मुखर करते रहे।

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